• २०८१ श्रावाण ११ शुक्रबार

तब मैं नज़्म लिखता हूँ

बिशन सागर

बिशन सागर

जब
लगा दी जाती हैं उस पर
कई बंदिशें
छीन ली जाती है उसकी
मुस्कुराहट
रोक लिया जाता है
उससे संवाद
खोने लगता है कहीं
उसका वजूद
तब
मैं नज़्म लिखता हूँ ।

जब
वेदना और संवेदना के
तार उलझ जाते हैं
एक दूसरे से
सुलगते शब्दों की टंकार
गूँजती है मेरे कानों में
और होती हैं
प्रतिध्वनियाँ
तब
मैं नज़्म लिखता हूँ ।

मेरी सर्द सन्नाटे से
अकड़ चुकी
ऊँगलियों मैं फिर से
होने लगती है जुंबिश
और
मेरे मन की सूखी टहनियों
पर कुछ शब्द
जुगनुओं की तरह
टिमटिमाने लगते हैं
तब
मैं नज़्म लिखता हूँ ।

मेरे भीतर
उगने लगता है इक पेड़
प्रेम और उल्लास का
जब
मन के बंजर कोने में
फिर से आ जाता है इक हरापन
सूखी बगिया में
फिर से महकने लगते हैं
अरमान
तब
मैं नज़्म लिखता हूँ ।


(चर्चित कवि सागर जालन्धर, पन्जाब, भारत निावसी हैं ।)
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