कविता

इन्तिकाम के सरार को हवा दोगे
ताउम्र रंजिशें झेलते रहोगे ।
अदावत से गर तौबा करना हो तो
दुश्मन को माफ करके देखो ।
नफरत पनपती है इन्तिकाम के गलियों में
रुसवाई हीं मिलेगी उस गली से गुजरने पे ।
ऐसा कभी न हुआ मगर मैं तन्हा रहा
तेरे बज्म–ए–रक्स में न आने का सबब था ।
इन्तिकाम के चर्चे दूर तक होते थे, पर
बस्तियाँ जलने की खबर तक न होती तब ।
दिल से धूवां भी निकले आज किसी के
चर्चे सुर्खियों में आजाते हैं बस्तियों में ।
इन्तिकाम का गरुर छिन लेता है गोयाई आप से
मखसूस होने के लिए सायदार शजर होना जरुरी है ।
तन्हाई ओढे दश्ते बिरानियों में भटकते रहोगे
कोई चारागर खलिश तुम्हारा समझ न पाएगा ।
निजाम–ए–हयात होते हैं अलग सबके अपने
घरौंदा टिकता नहीं बने इन्तकाम के बुनियाद में ।
आफरीं अगर दुश्मनी पर मिट्टी डालोगे
चश्म–ए–तर तुम्हारी जुवां बनकर बोलेगी ।
तारीख दुश्मनी के अफसानों से लबरेज है
मोहब्बत सकुं देता दुश्मनी वरपा कर नहीं सकता ।
इन्तिकाम के जनून में मरना मंजूर नहीं मुझे
पाक दामन ले गुजर जाएं तो सिला मिल गया मुझे ।
(जोशी पेशा से कृषि वैज्ञानिक हैँ, वे पत्रकारिता के साथसाथ साहित्य सिर्जना भी करते हैं ।)
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