समाचार

पंखुड़ी गुलाब की
झूल रही डाल से ।
जुड़ने को मचल रही
अपने परिवार से ।
ढुलका दिया हवा ने
पत्तों के आसपास ।
श्वास उसकी चल रही
मजबूत थी उसकी पकड़ ।
नाज़ुक कोमल सी पंखुड़ी
ऊर्जित थीं उसकी शिराएं ।
पत्र पर पड़ी/पड़ी
प्राण रस ले रही ।
थी परीक्षा की घड़ी
धैर्य संयम संग खड़ी ।
समय बहुत ही कठिन
चल रहा था दुर्दिन ।
समीर था वहां खड़ा
मंद-मंद मुस्कुरा रहा ।
धकेलने को उसे
पुरजोर लगा रहा ।
पंखुड़ी निडर थी
सांस थामे पड़ी थी ।
नयन कुछ बड़े थे
अश्रु सूख चुके थे ।
नेत्र कुछ कड़े हुए
धरा पर गड़े हुए ।
पाने को गोद माँ की
आतुर हो रहे बड़े ।
जोर की हवा चली
पंखुड़ी उड़ चली ।
बलिदान कर तन-मन
प्राण अपने दे चली ।
खुशी का पल मिला
जीने का हल मिला ।
मिट्टी में मिल गई
उर्वरा कर गई ।
(तीनसुकिया, असम, भारत)
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