• २०८१ पौष २९ सोमबार

केंचुल

डॉ.श्वेता दीप्ति

डॉ.श्वेता दीप्ति

दिन का तीसरा पहर था । आम दिनों की तरह आज अस्पताल में चहल-पहल नहीं थी, क्योंकि बाहर शांति छाई थी । बस बाहर से कभी- कभार धीमी आवाज, पैरों की पदचाप, और कमरे में मशीनों की आवाज के साथ, घड़ी की टिक- टिक सुनाई दे रही थी । कुछ क्षण छत पर टँगे पंखे को देखती रही फिर एक लम्बी साँस के साथ मैंने करवट बदली । सामने दीवार पर एक बुद्ध की तसवीर टँगी हुई थी । बड़े से ॐ के साथ शांत बुद्ध और उसके इर्दगिर्द फैली लालिमायुक्त रोशनी, मन को सुकून दे रहा था । खिड़की से बाहर सूर्य का लाल गोला अपनी यात्रा की समाप्ति की ओर था । रोज ही देखती हूँ परन्तु न जाने आज क्यों ऐसा लगा कि, जैसे मेरी यात्रा भी आज समाप्त हो जाएगी । पिछले एक महीने से प्रतिपल इस यात्रा की समाप्ति का इंतजार कर रही हूँ ।
हाँ ! अब, सब खत्म होने को है । ये वक्त आता है, सबकी जिन्दगी में आता है । परन्तु, मुझे इस कटु सत्य के साथ पल-पल जीना पड़ेगा ऐसा कभी नहीं सोचा था । आज में, कल की परछाईयाँ न चाह कर भी बार-बार उभर कर आ रही हैं । इसे ही तो मन कहते हैं । वो मन, जिस पर किसी प्रकार का अंकुश नहीं लगा सकते हम । वह भटकता है बार-बार न चाह कर भी अतीत के गलियारों में, कई चेहरे उभरते हैं, कुछ अपने, कुछ बेगाने । आज उन चेहरों, उन यादों का कोई अर्थ नहीं । किन्तु, अपनी आधी उम्र उस अर्थहीन सच को मैंने अपने अन्दर पाले रखा क्योंकि, वह मुझे सुख देता था । जिस बेरंग जिन्दगी को मैं पिछले बीस वर्षों से जीती आई हूँ, उसमें मेरा अतीत ही मेरे जीने का सम्बल था । मैंने अपने सम्पूर्ण व्यक्तित्व को जिस केंचुल में छुपा रखा था उसे कभी उतार फेकने की कोशिश नहीं की । किन्तु आज उस केंचुल से मुक्त होना चाहती हूँ । ये आखिरी सफर तय करने से पहले मैं खुल कर साँसें लेना चाहती हूँ, हर पल कम होती साँसों को खुली हवा देना चाहती हूँ ।
आज जीवन के अंतिम पड़ाव पर मैं स्वीकारना चाहती हूँ कि मैंने तुमसे प्यार किया था । बिना किसी शर्त और वादे के । पहले प्यार का अहसास, उसकी अनुभूति के स्रोत तुम ही तो थे । एक आधा-अधूरा प्यार, जिसमें तुम्हारी कोई भूमिका नहीं थी । किन्तु मेरे लिए मेरा प्यार सम्पूर्ण था, बिना तुम्हारे भी । न जाने कब सभी दोस्तों के बीच तुम अहम् हो गए थे । अपने स्वभाव से परे मैं तुम्हारी ओर खींचती चली गई थी । सभी की निगाहों को मैंने पढ़ा था, उनकी चाहतों को समझा था । परन्तु सब हँस कर टाला, कभी किसी को तरजीह नहीं दी । सबके साथ हँसना, बोलना, बात-बात पर गाना, एक स्वतंत्र मुखरता थी मुझमें । मैं जानती थी कि यही मुझे सबके बीच आकर्षण का केन्द्र बनाता है । सबकी चहेती मैं किन्तु मेरे लिए कोई खास नहीं था ।
एक दिन अचानक तुमने कहा था, “हम दोस्त बनें ?”
मैंने कहा, “दोस्त तो हम हैं हीं ।”
और फिर इसी तरह एक दिन तुमने संजीदगी से कहा, “मेरी शादी हो रही है ।”
अपनी आवाज को हर सम्भव सामान्य रखते हुए मैंने कहा था, “इसमें नया क्या है, सभी की होती है । बधाई हो तुम्हें ।”
तुम्हारे इन दो वाक्यों के बीच के समय में हमारे दरमियाँ संवादों की कमी नहीं थी । हम रोज मिलते थे । मतलब से अधिक बेमतलब की बातें हुआ करती थीं हमारे बीच । किन्तु उन बातों के बीच न तो कोई कसमें थीं और न ही कोई वायदे ।
तुम्हारी शादी हुई और हम एक और अंतिम बार मिले । उस दिन मैंने कहा था, “मैं जा रही हूँ ।”
“क्यों ? अचानक इस तरह…। घर पर सभी ठीक तो है ?”
“नहीं, पापा बीमार हैं और अब शायद मैं नहीं आ पाऊँ ।”
अपने बीच एक खामोशी की दीवार खड़ी कर लौट आई थी मैं । एक बार पलट कर देखा था, किन्तु तुम्हारे कदम पीछे मुड़ चुके थे ।
उस अंतिम मुलाकात को तकरीबन पचीस वर्ष बीत गए हैं । न जाने कितनी बातें इस बीच जिन्दगी की किताब के पन्नों को भरती चली गईं । पर वो एक पन्ना आज भी ज्यों का त्यों है । कुछ भी धुँधला नहीं हुआ है । तुमसे वो पहली मुलाकात का पन्ना । एम.ए. कक्षा का पहला दिन, पहली घंटी । मैं हड़बड़ाती हुई कक्षा में घुसी । एक तो पहला दिन, पहली घंटी और मैं विलम्ब से आई थी, इसलिए थोड़ी नर्वस थी । जल्दी से बिना इधर-उधर देखे मैंने एक खाली सीट पर कब्जा जमा लिया था । सभी अपना परिचय दे रहे थे । मेरी बारी आई, मैंने कहा, “मैं रोहिणी ।”
तभी पीछे से आवाज आई “और मैं रोहण ।” सभी एकबारगी ठहाका मार कर हँस पड़े थे । मेरी कनपटी गर्म हो गई थी, पैर काँप रहे थे । जी में आया पीछे मुड़ कर देखूँ कि कौन है, परन्तु हिम्मत नहीं कर पाई ।
सर ने भी हँस कर कहा था, “अरे ! तो आप पीछे क्या कर रहे हैं ? आपको तो साथ होना चाहिए था ।” मैं धपाक से बैठ गई थी । बहुत गुस्सा आया था उस रोज तुम पर । पता नहीं मन-ही-मन क्या-क्या कह कर तुम्हें जी भर के कोसा था ।  कक्षा समाप्ति के बाद लड़कों के झुण्ड में  मेरी आँखें तुम्हें तलाश रही थीं । सोच रही थी इनमें से कौन होगा, जिसने मेरा मजाक बना दिया । तभी तुम बेधड़क मेरे सामने आए और कहा,
“हम दोस्त बनें ?”
तुम्हारी बेबाकी ने मुझे हतप्रभ कर दिया था । मेरी नाराजगी पता नहीं कहाँ गायब हो गई थी । मेरे सामने एक खूबसूरत नौजवान खड़ा था जिसके होठों पर एक मासूम सी मुस्कुराहट थी । और इस तरह हम दोस्त बन गए थे ।
तुम क्या सोचते थे ये न तो तुमने कभी कहा और न ही कभी मैं बता पाई । शायद हम दोनों ही एक दूसरे से पहल की अपेक्षा करते रहे ।  तुम्हारा साथ मुझे अच्छा लगता था और शायद तुम्हें भी । तभी तो हम किसी ना किसी बहाने मिलने के बहाने ढूँढा करते थे पर जताते कभी नहीं थे । भीड़ में भी तुम्हारे साथ मैं खुद को सुरक्षित महसूस करती थी । वे सारे अहसास हमारे बीच थे जिन्हें हम प्यार कह सकते थे । पर एक केंचुल था जिसे मैंने पहन रखा था । मेरा परिवार, मेरे संस्कार ने कभी उस केंचुल से मुझे निकलने ही नहीं दिया ।
फिर कुछ अंतराल के बाद मेरी भी शादी हो गई । एक अजनबी मेरे साथ था, जिसका सामाजिक रूप से मुझ पर अधिकार था । अपनों को छोड़ मैं उसके साथ उसकी दुनिया में आ गई, जो चाहे-अनचाहे अब मेरी भी दुनिया थी । अक्सर सोचती रही मैं क्या सचमुच यही मेरा हासिल था ?
समय गुजरता गया और साथ ही यह अहसास होता गया कि मेरे साथ का शख्स मेरे लिए हमेशा अजनबी ही रहा । न जाने कौन सी अनदेखी दीवार थी हमारे बीच जो कभी ढही ही नहीं । हमारी सोच, हमारे सपने, हमारे विचार सभी अलग थे । हम रिश्ते के दो छोर पर खड़े थे । एक लम्बे अँधेरे सुरंग के मुहाने पर खड़ी मैं एक क्षीण सी रोशनी की तलाश हर रोज करती रही । पर वो अँधेरा कभी खतम ही नहीं हुआ । एक यंत्रवत जिन्दगी मैं आज तक जीती रही हूँ । यहाँ भी वही केंचुल मुझे जकड़े रहा । निरन्तर एक दंश झेलकर भी कभी उससे आजादी का खयाल नहीं आया । हाँ यह जरूर खयाल आता था कि काश, यह वक्त कहीं पीछे मुड़ पाता । मैं जी पाती उस बीते कल को । हर बीते दिन के साथ सोचती कि क्या कभी तुम्हारी यादों में मैं हूँ ? या फिर गुजरे कल का हिस्सा बन चुकी हूँ ? कभी अपनी नादानियों पर हँसी आती । मैं रेगिस्तान में पानी तलाश कर रही थी । हमारे बीच कभी कोई सम्पर्क नहीं रहा । मैं फिर कभी उस शहर लौट कर नहीं गई । मेरे साथ हमेशा डायरी के वो पन्ने रहे जिनमें किसी ना किसी रूप में तुम मौजूद थे ।
कहते हैं अब दुनिया छोटी हो गई है । परन्तु मेरे लिए तो आज भी ये दुनिया बहुत बड़ी है । छोटी होती तो तुम जरूर मिलते, मुझे किसी ना किसी मोड़ पर । आज हमारे बीच एक नई दुनिया ने जन्म ले लिया है, जहाँ हम सब व्यस्त हैं अपनी ख्वाहिशों, चाहतों और तमाम उम्मीदों को दफना कर एक यांत्रिक जीवन को जीते हुए ।
“आपकी दवा का वक्त हो गया है ।” नर्स की आवाज कहीं दूर से आती हुई प्रतीत हुई । मैंने बड़ी कोशिशों के बाद आँखें  खोलकर उसे देखा ।
“हाँ ! शायद वक्त हो गया है ।” एक क्षीण सी मुस्कुराहट के साथ मैंने कहा ।
“आज आपसे कोई मिलने नहीं आया ?”
“शायद समय नहीं मिला होगा ।”कहते हुए मैंने फिर अपनी आँखें बंद कर ली । सभी इंतजार कर रहे हैं, मैं भी । हम सभी थक गए हैं, उस एक पल के इंतजार में । मैं जिन्दगी की उस पड़ाव पर खड़ी हूँ, जहाँ अब सिर्फ इंतजार है….। ताउम्र मैं इंतजार ही तो करती रही, कभी उस प्यार का जो मेरा नहीं हो सका, कभी उस प्यार का जो कभी हमारे बीच था ही नहीं और आज उस मौत का जो मेरी है, फिर भी मेरे पास नहीं आ रही । अतीत को जीती आज भी मेरे सामने इंतजार ही है, एक लम्बा इंतजार या फिर एक पल का …. । एक लम्बी साँसे लेती हूँ और अपने केंचुल में कसकर एक बार फिर से खुद को छुपा लेती हूँ हमेशा की तरह ।


(डा. श्वेता दीप्ति त्रिभुवन विश्वविद्यालय में हिन्दी साहित्य की उप-प्राध्यापक हैँ)
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