• २०८१ माघ ९ बुधबार

जाडे की धूप

ध्रुव जोशी

ध्रुव जोशी

सर्दी का सूरज
गुनगुनाते गरमाहट पसारे
बडा प्यारा लगता है
जिस्म गर्म चादर में लपेटे
धूप मे बैठना
बडा ही न्यारा लगता है ।

पहाडों में बर्फ से ढकी वादियां
वक्त जैसे थम सा जाता है वहाँ
बडा अच्छा लगता है
अक्स-ए-आफताव फैलती है वादियों में
चारों तरफ स्वर्णिम छटा उतर आता है
बडा ही न्यारा दिखता है ।

सर्दियों में पीली धूप सेंकते बुजुर्ग
आँख मुंदे तसव्वुर कि कश्ती में सैर करता है
बडा अच्छा लगता है
रात को चाँदनी फैलती है वादियों में
जन्नत-ए-नूर उतर आता है
बडा ही न्यारा दिखता है ।

रूहानी तिलस्म का लुत्फ लेन
पहाडों में सैलानी आते है
बर्फ के समन्दर में डुबता उतरता
गमों को भूल कर चन्द लमहे जीते है
रेत को मुठ्ठी में दबाए वक्त को पकड लिया हो जैसे
बडा अच्छा लगता है ।

खुशकिस्मती होती नहीं सब के हिस्से में
जो फुटपाथ को बिस्तर बनाए सोते है
ख्वाबों की रजाई ओढे नींद से हम-बिस्तर
गरीबी का आलम देख कर
हूक सी उठती है अभ्यन्तर में
काश ! चारो तरफ खुशहाली बरपा होता
मुफलिसी पर यलगार बोलता कोई
नया सबेरा आगाज देता
चारों तरफ जन्नत का नजारा होता
वो दिन बडा प्यारा होता
बडा ही न्यारा होता ।


(जोशी पेशा से कृषि वैज्ञानिक हैँ, वे पत्रकारिता के साथसाथ साहित्य सिर्जना भी करते हैं ।)
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