• २०८२ बैशाख १४ आइतबार

जीवन गीत

डा. वन्दना गुप्ता

डा. वन्दना गुप्ता

जीवन की एक
सांझ सौंपती
कि पखेरू उड़ चले अब…

उड़ चले थे स्वप्न मेरे
बन सृजन की कल्पना
जीवन में रागों को भरते
गढ़ते थे कई अल्पना
एक उर्जस्वी गीत सौंपती
कि पखेरू उड़ चले अब…

ये महल, अटारी, गलियां, उपवन
वैभव और सिक्कों की खनखन
ये आलोक दैदीप्यमान सब
और विराट का सुन्दर आंगन
माया का संसार सौंपती
कि पखेरू उड़ चले अब…

एक सफर था साथ तेरे
नयी सुबह का, भरी दुपहरी
उत्सवों की सांझ का
और रात के संताप का
काया का श्रृंगार सौंपती
कि पखेरू उड़ चले अब….
सांसों से सांसों का बंधन
मन से मन के सूत्र जुड़े थे
आंखों की सुन्दरता में
अनुरागों के छंद जुड़े थे
अब अन्तिम उच्छवास सौंपती
कि पखेरू उड़ चले अब…।


(शिक्षिका, स्वतंत्र लेखन, कई काव्यसंग्रह प्रकाशित, सिलीगुडी, पश्चिम बंगाल)
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