ढल रही शाम थी वो
रात थोड़ी सहमी हुई सी
अजनबी तो द्वार पर था
धीरे से एक दस्तक हुई ।
निस्तब्ध थी,वह प्रतीक्षारत
चुप्पी साधे थी आज धरा
थरथराते हाथों से उसने
खोले थे,घर के बंद कपाट
व्यथित हृदय के, फूटे थे बोल
पर, उन उनींदी आंखों मे सिर्फ
एक धूमिल सपना ही था वो मगर
धीरे धीरे भोर पसर गया
जैसे वो विरासत में मिली थी
सिर्फ एक स्मृति रात !!
(गृहिणी, स्वतंत्र लेखन, हावडा, पश्चिम बंगाल भारत)
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