• २०८१ फागुन २ शुक्रबार

परिंदे

अनिल कुमार मिश्र

अनिल कुमार मिश्र

कितनी बार
उजड़ जाते हैं
परिंदों के घर
हार नहीं मानता है परिंदा
उड़ता रहता है
बुनता रहता है ख्वाबों को
गढ़ता है ख्वाबों को मूर्त्त रूपों में
शक्तिशाली, और छल करनेवाले
प्राणी भाग जाते हैं
लेकर उनके अंडे
जिनमे बसता है
उनका सारा संसार
उनकी पीढ़ी, उनका वंश,
दूर-दूर से लाते हैं परिंदे
तिनके
उच्च गुणवत्ता वाले
सीमेंट के नामी गिरामी
कंपनियों से भी मजबूत,
बनाते हैं एक घर
जिसे सुरक्षित समझते हैं
अपने बच्चों के लिए
अपने परिवार के लिए,
उजाड़ देते हैं लोग
उनके घोसले
काट कर गिरा देते हैं वृक्ष
जिसपर टिका होता है
उनका घर संसार
ज़मीन की तरह
जिसपर बसते हैं
मनुष्य,
मनुष्य की भूमि
उसी वृक्ष की तरह है
जिसपर वह बनाता है
अपना घोंसला
और हमारे साथ बसने वाले सर्प
हमारे बच्चों का सुख चैन
छीनकर भाग जाते हैं
लूट लेते हैं घोसले को
उजाड़ देते हैं उसे
गिरा देते हैं विशाल वृक्ष को
जिसपर एक छोटा सा घोंसला था
और घोंसले में थी हमारी पीढ़ी
रिश्तों के छल से अनजान
चंद अंडे ।


अनिल कुमार मिश्र
राँची, झारखंड, भारत ।