औरतें कहाँ जीती हैं
खुदमुख्तार जिंदगी
वे जीती हैं मर्दों की चुनी हुई जिंदगी
वे चलती हैं मर्दों की चुनी हुई राह
ख़ास फैसले से आम फैसले तक
खानपान से पहनावे तक
कहाँ उन्हें कोई हक़ मिलता है
मर्ज़ी की जिंदगी का ख्वाब
ताउम्र ख्वाब बन कर रह जाता है
मर्ज़ी की जिंदगी तो क्या
मर्ज़ी की मौत का भी हक़
उन्हें कहाँ मिलता है
उसका भी फैसला
कभी कोई ‘खाप’ करता है
तो कभी कोई ‘फतवा’ करता है.
(स्वतंत्र लेखन, मैनेजरः एसबीआई, मुम्बई महाराष्ट्र, भारत)
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