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‘बाबूजी, आपने क्या हालत कर ली अपनी और हम सब को बताया भी नहीं. हमेशा सब ठीक है, सब ठीक है कहते रहे । बहुत गलत किया आपने । मैं बात नहीं करूंगी आपसे ।’ आँखों से आंसू पोछते सीमा ने अपने बाबूजी के सीने पर सर रख दिया । वो आँसू रोकना चाह कर भी नहीं रोक पा रही थी । ‘भैया ने फोन किया तो अब आई हूँ, आपने तो पराया ही समझ लिया मुझे, बाबूजी कुछ तो बोलिए ।’ लेकिन उसके बाबूजी कहाँ उसकी बात सुन पा रहे थे वो तो बेसुध पड़े थे । ‘सीमा चल तू थोड़ा आराम कर ले फिर बात करेंगे आजा…।’ सोनल भाभी ने कहा । ‘हाँ भाभी…जरा माँ को देख लूं ।’ ‘हाँ, जा नहा भी ले फिर खाना लगाती हूं ।’
सीमा अपने कमरे में आई । वही कमरा जहाँ उसका बचपन बीता था, जहाँ वो अपने बड़ी बहन और एक भाई के साथ रहा करती थी। माँ वहीं निढाल सी आँखों में आंसू लिए बैठी थी । ‘माँ तुम इस कमरे में !’ ‘हाँ,सोचा तेरा कमरा ठीक कर दूं ।’ माँ ने नम आँखों से कहा। ‘इसे रहनो दो माँ मैं बाद में करती हूँ। तुम बैठो बाबूजी की हालत इतनी खराब थी तुमने भी नहीं बताया माँ । भाभी अकेली घर,बच्चे सब संभालती रही । अब जब घर पर अंतिम सांस ले रहे हैं तब तुमने बताया ।’
‘माँ, इतना पराया कर दिया तूने मुझे ।’ ‘नहीं, मेरी बच्ची ! लगा था घर ठीक होकर आएंगे पर अब कुछ उम्मीद नहीं । उम्र का बस यही तो असर होता है । कुछ भी कर लो पर रुकता नहीं । अब तो सारे अंगों ने काम करना बंद कर दिया है । बस अब कुछ बाकी नही रहा । नर्स, दवाइयों सब का इंतजाम तेरी भाभी ने घर पर ही कर दिया । कुछ असर ही नहीं है । देखकर आँखें बंद कर लेते हैं ।’ माँ रोने लगी थी ।
‘दीदी आई है दिख नहीं रही ?’ सीमा ने पूछा । ‘ऊपर वाले रुम में तेरे जीजा भी हैं तो ऊपर ही दीदी भी है ।’ माँ ने कहा ।‘सीमा दी आपने नहाया नहीं अभी ! तक मैं नाश्ता भी ले आई ।’ भाभी कमरे में आयीं । सीमा को अजीब लग रहा था दीदी आई है और ऊपर ही हैं । भाभी बेचारी सारे काम अकेले कर रही हैं । नहाकर नाश्ता करके वो अपनी दीदी के पास गयी । उसने आवाज़ देकर पूछा-‘दीदी कहाँ हो ? आजा अंदर । कब आई तू ?’ दी ने पूछा ।‘एक घंटे हो गया ।’ ‘आप ऊपर ही हो नीचे नहीं गई दीदी ?’ सीमा ने पूछा ।‘नहीं रे मैं तो कल ही आई हूँ । पर दिमाग खराब हो गया मेरा । यहां न खाना समय पर, न चाय । हम सब को आदत है सब समय पर करने की । तुझे तो पता है न ! और तो और… गर्म पानी भी नहीं है । पाँच बार मांगो तो मिलता है । यहाँ तो चाय- चाय की आवाज भी दस बार देनी पड़ती है।’ मैं चुपचाप नीचे आ गई और सुलभा भाभी के साथ काम में लग गई । दिमाग दीदी की बातों पर ही नाच रहा था । पैसे के घमंड ने उन्हें क्या से क्या बना दिया है । भाभी की मदद के बारे में एकबार नहीं सोचा ।
दीदी पहले से ही ऐसी थी पर अब और सब कुछ बिस्तर पर ही चाहिये होता है, न मिले तो हंगामा । आज बाबूजी अंतिम समय में हैं फिर भी उन्हे यही सब दिख रहा है । ‘सीमा दीदी बड़ी दीदी को खाना ऊपर ही दे देती हूँ ।’ सुलभा भाभी ने बोला। ‘वो ऊपर हीं खाती हैं क्या ?’ जवाब हाँ सुनकर मैं दंग रह गई, वो दोनों क्या हनीमून पर आये हैं जो कमरे से नही आ रहे । गुस्सा तो बहुत आया पर तब तक माँ के चिल्लाने की आवाज आने लगी । भैया और हम सब दोड़ कर गए पर तब तक बाबूजी हम सब को छोड़ कर जा चुके थे।
भाभी बेचारी जो अकेले बाबूजी की सेवा में रात दिन लगी थी अब माँ को संभालने में लग गयीं । पर दीदी का कोई पता नहीं था । मैं ऊपर से बुलाकर लाई फिर तो ये दहाड़े मार कर रोना की जैसे जबसे ज्यादा दुखी वहीं है । हैरत है जिसने एक ग्लास पानी भी न दिया हो, वो इतना दुखी कैसे हो सकता है । सुलभा भाभी बेचारी आँगन में सारी तैयारी से लेकर सबके चाय पानी के इंतजाम में लगी थीं । सारे काम पूरे करने के बाद सब घर आ गए थे । नहाना सब का हो गया था । दीदी चाय के लिए शोर मचा रही थी- ‘कहीं से बनाकर तो ला दे कोई ।’
सुलभा भाभी उठकर जाने लगी तो मैंने मना कर दिया । भाभी, आप आराम करो और माँ को देखो । घर उनका भी है वो सबको जानती हैं । और इस घर की बेटी है उन्हें करने दो वो समय गया, जब हम सब ने उनको झेला पर अब नहीं । आपको नहीं झेलने दूंगी । सबने सोचा था वो समय के साथ बदल जाएंगी लेकिन नहीं वो कभी नहीं बदलेंगी । पर अब बदलना होगा ।
दीदी ने जैसे तैसे चाय बनवाकर जीजाजी को भी दी और खुद भी पी । माँ सब देख रही थीं । दस दिन में जो हालत दीदी ने की, माँ बेचारी मन मसोसकर रह गई। सब काम धीरे धीरे खत्म हो गए और दीदी सबसे पहले चली गयीं । नाराज होकर जो हमेशा से होता है । दीदी को हजार शिकायतें होती थीं सबसे । पर माँ इसबार उनसे ज्यादा दुखी थीं ।
‘सीमा, कल तू भी चली जाएगी । तेरे बाबूजी के बिना तो ये घर अब घर न रहेगा । तू आती रहना ।’ ‘माँ आऊँगी भी और आप को लेकर भी जाऊँगी । दोनों जगह घूमती रहना ।’ सीमा ने अपनी भींगी आँखों को पोछते हुए कहा ।‘सीमा दी…बड़ी दीदी तो नाराज हैं, आप संभाल लेना ।’ सुलभा भाभी ने कहा ।
‘भाभी, आप इस घर की बहु हो नौकरानी नहीं जो सबके खातिरदारी में लगी रहो । आप बहु हो माँ के बाद आपका और भैया का स्थान ही है । और हम सब का मायका भी आपके दम से ही है । बड़ी हो या छोटी समझ में आ जाऐ तो ठीक नहीं तो अपने घर रहें । पैसे वाली हैं तो अपने घर की होंगी । यहां जो है जैसा है उन्हें वही मिलेगा । माँ,बाबूजी ने बहुत झेला उन्हें अब आपको और भैया को नहीं झेलने दूंगी । हम सब आयेंगे भी और जो है,जैसे है, उन्हें भी उसी में रहना ही होगा ।’
सुलभा भाभी गले लग गई और आँखे गंगा जमुना सी बरस पड़ी- ‘दीदी जल्दी आना फिर ।’ मैंने भी हाँ में सिर हिलाया । भैया दूर खड़े थे । पर आज ऐसा लग रहा था जैसे बाबूजी की परछाई खड़ी हो । उनकी भी आँखे नम थी- ‘मोटी जल्दी आना ।’ ‘हाँ भैया’, कहकर लिपट गई थी । दीदी पैसों के आगे रिश्ते खो चुकी थीं लेकिन मैंने वो पा लिए थे ।
मैं…माँ, भाभी भैया का प्यार समेटे वापस आ गई थी पर एक कसक थी दिल में दीदी को खो देने की । वो पैसों की चकाचौंध में कहीं खो गई थीं । और प्यार भरे रिश्तों से कहीं बहुत दूर जा चुकी थीं । प्यार के आगे कुछ भी नहीं है । ये पैसे, ये व्यवहार इससे वो प्यार तो नहीं ही पा सकती हैं, ये वो भूल चुकीं हैं ।
(सामाजिक विषयों पर देश विदेश की पत्रिकाओं में निरन्तर लेखन, मुम्बई, महाराष्ट्र, भारत)
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