• २०८१ मंसिर १७ सोमबार

विडंबना

निशा नंदिनी भारतीय

निशा नंदिनी भारतीय

असम के दिनजान आर्मी केम्प में संजय सिंह और विशन सिंह बहादुर दो जवान रहते थे । दोनों की पत्नियाँ सुशीला और मनोरमा बहुत अच्छी मित्र थीं । दोनों के घर भी आमने सामने थे । दोनों परिवारों का आपस में गहरा उठना बैठना था । दोनों परिवारों में वस्तुओं का लेन देन भी चलता रहता था, बच्चे भी एक ही साथ पढ़ते और खेलते थे । दोनों जवानों में भाइयों जैसा प्यार था । दोनों ही जवान देश को समर्पित थे पर उन्हें कभी पुरस्कार आदि नहीं मिला था । जबकि उनके अन्य साथियों को मिल चुका था ।
दोनों रात दिन अपने परिवार से ज्यादा अपने वतन के सपने देखते थे । उनकी दिली ख्वाहिश थी कि उनको जीते जी कोई सम्मान या पुरस्कार प्राप्त हो । कुछ समय बाद संजय की पोस्टिंग कश्मीर में और विशन सिंह की पंजाब में हो गई । पर दोनों के परिवार को जाने की अनुमति नहीं थी । दोनों के परिवार असम के दिनजान में ही थे । जिस समय विशन सिंह पंजाब में बागा बोर्डर पर जा रहा था । उस समय उसकी पत्नी मनोरमा उसकी दूसरी संतान को जन्म देने वाली थी । उसकी पहली संतान तीन साल की एक बेटी थी । विशन सिंह अपनी पत्नी को आश्वासन देकर की मैं जल्दी ही तेरी डिलेवरी तक आ जाऊँगा, चल दिया । अब मनोरमा अपनी तीन साल की बेटी रिया के साथ अकेली थी । जैसे-जैसे उसकी संतानोत्पत्ति का समय समीप आ रहा था । उसकी चिंता बढ़ती जा रही थी, रुपए-पैसे भी अधिक नहीं थे और जब वह अस्पताल जाएगी । तब तीन साल की बेटी रिया को कौन देखेगा । आस–पास में उसका कोई रिश्तेदार भी नहीं था एक मात्र संजय की पत्नी सुशीला ही थी । वह उसे हिम्मत देती थी कि तुम चिंता मत करो सब ठीक हो जायेगा । मनोरमा का नवां महीन लग चुका था । उधर बागा बोर्डर पर गोलीबारी शुरु हो चुकी थी ।
विशन सिंह पूरी मुस्तैदी से ईंट का जवाब पत्थर से दे रहा था । बोर्डर पार के कितने ही सैनिकों को उसने मौत के घाट उतार दिया था । बोर्डर पार की सेना परेशान होकर बौखला रही थी । एक रातउन्होंने छिप कर धोखे से गोलीबारी शुरू कर दी । भारतीय सेना के बहुत से जवान मारे गए । उसमें वीर जांबाज विशन सिंह भी मारा गया । इधर विशन सिंह के गोली लगी और उधर उसकी पत्नीने पिता के समान नैन नक्श वाले सुंदर से पुत्र को जन्म दिया । सुशीला ने मनोरमा की हर तरह से सहायता की ।
विशन सिंह को उसके अद्भुत कौशल के लिए परमवीर चक्र से सम्मानित किया । परिवार बहुत खुश था पर जिसको सम्मान मिला वह तो पुरस्कार व सम्मान की आस लिए शहीद हो चुका था । पत्नी ने सम्मान उसकी फोटो के पास रख दिया ।
आज हमारे देश की यह कैसी विडंबना है कि चाहे पुरस्कार हो या सम्मान सब कुछ मरणोंपरांत ही मिलता है । क्या जीवित रहते हुए हौसला नहीं बढ़ाया जा सकता है । कल तक हम जिसको अपशब्द बोलकर बुरा भला कहते हैं । आज उसके मरते ही सब बुराइयां समाप्त हो जाती हैं । केवल अच्छाइयां ही दिखने लगती हैं । हम जीते जी किसी के गुणों को क्यों नहीं देख पाते हैं । इसका मुख्य कारण हमारा अंहकार है और हमारी नकारात्मक सोच है । हम पूरे जीवन भर स्वयं को छोड़कर दूसरो में सिर्फ कमियां ढूंढने में लगे रहते हैं ।
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(तीनसुकिया, असम, भारत । समाज सेविका, साहित्यकार, व्याख्याता । ४५ पुस्तकें प्रकाशित)

nishaguptavkv@gmail .com