• २०८१ कातिर्क २१ बुधबार

आत्मरक्षा

प्रियंका झा

प्रियंका झा

एखनुक विश्व ग्लोबलाइजमे
स्वतन्त्र रहल समाज आ राजनीतिमे
समानताक हक रहल संबिधानमे
किए कएल जाइछै लैंङिक विभेद
किए पिसल जाइछै असहाय–लाचार लोकसब ?
किए दबाएल जाइछै
लोकतन्त्रक घेंट आ
किए कुरेतल जाइछै
बेर(बेर दुखियाक पीड़ा ?

हरेक महिना
लुटाइत छै बेटीक अस्मीता
नोचल जाइ छै ओकर अस्तित्व आ
बुटि बुटि कऽ कऽ फेकल जाइछै
ओकर शरीरक प्रतेक अंगकें!
रे पापी !
की ओ अपन गामो–समाजमे
स्वतन्त्र भऽ नइ रहि सकैए ?
की ओ अपनो लोक लग
चैन सँ सास नइ लऽ सकैए ?
की दोष छै ओइ छोट बच्चाके ?
एतबे ने जे ओ कुनो नेता,मन्त्री वा
कुनो व्यवसायीके घरमे नइ जनमलै?

आखिर किया बौक भेल अछि सरकार
किया मौन भेल अछि पत्रकार
किया दम साधि लेने अइ समाजसेवी
किया रक्षके के आँगनमे
बलत्कार होइत छै अबोध बच्चासभकें
आ तैयो किया चुप्पी सधने छै
तीनु तहक सरकार?

जखन बेटीके शरीरक बनावट
छै ओकरा लेल काल तखन
कोन माए जन्माएत अपन कोखि सं बेटी ?
कोन माए चाहत अपन फूलसन बेटीक बलत्कार
वाह रे वाह हमर नेतागण !
नइ चाही हमरा सभके साइकल
नइ चाही हमरा सभके झोरा–झन्टा
नइ चाही बैँकमे खाता आ
नइ चाही बेटी पढाउ,बेटी
बचाउके फुसियाही नारा।

जऽ दऽ सकैछी त दिय
हक
अधिकार
हिम्मत
भरोसा
सिखा सकैछी त सिखा दिय
आत्मरक्षा हेतु सीप–तालीम
जइ सँ कऽ सकी स्वयंके रक्षा आ
बचा सकी अपन अस्तित्व !

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(जनकपुरधाम, हाल : काठमाण्डू/वृति : मैथिली रंगकर्मी)
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