• २०८२ कार्तिक १४, शुक्रबार

भूमि

अक्कितम अच्युतन नंबूथिरी

अक्कितम अच्युतन नंबूथिरी

यदि आकाश और पारावार ‘धरणी निर्जीव है’ कहकर उपहास
करें तो यह उनके ही अल्पत्व का द्योतक होगा ।
माँ पृथ्वी ! मैं जो तुम्हारे प्राण-प्रकाश से सुलगी हुई वर्तिका हूँ,
उन दोनों के मूल्य को भली-भाँति आँक चुका हूँ ।
जब कि अंबर अपनी तपस्या के कारण मेरे आदर के योग्य बना है
तब अंबुधि अपने क्षोभ के कारण मेरे वात्सल्य का पात्र हुआ है ।
परंतु माँ, तुम्हारे मुखमंडल पर विराजित यह उत्तेजक सौंदर्य
और कहीं नहीं दिखलाई दिया ।
कोटि-कोटि सन्तानों की चिंता से व्याकुल, उनके प्रति स्नेह के
कारण निर्निद्र हुए तुम्हारे नयनों में,
उस प्राचीनतम दिन से, जबकि तुमने प्रथम ‘अमीबा’ को
जन्म दिया था, तप तथा क्षोभ से परिपूर्ण यह सारा आदर्श
सौंदर्य तुममें विद्यमान है ।
निस्तन्द्र वर्णन की शक्ति, उत्साह और उन्मेष रखने वाली
हे क्षमादेवी१ जिन्होंने तुमसे अस्तित्व प्राप्त किया वे ही
आज तुमको देखकर हँसें, तो हँसने दो ।


अक्कितम अच्युतन नंबूथिरी