• २०८२ असार ३१ मङ्गलबार

मंज़र

निवेदिता शुक्ला

निवेदिता शुक्ला

भरी आंँखों से अब ये मंज़र
नहीं देखे जाते
हमसे अब ये खारे समुंदर
नहीं देखे जाते ।

हमसे मिलना है तो
खुश मिजाजी से मिलो
हम से ये नकाब चढ़े चेहरे
नहीं देखे जाते ।

अदब करना मेरे
बुजुर्गों की अमानत है
भरे बाज़ार में मुझसे
रिश्ते नहीं बेचे जाते ।

हाथ थामा है तो फिर
हालात से डरना कैसा
आन बचानी हो तो फिर
लश्कर नहीं देखे जाते ।


निवेदिता शुक्ला
इटावा, उत्तर प्रदेश, भारत