• २०८१ कातिर्क ३० शुक्रबार

बस एक निशान छूट रहा था

अरुण कमल

अरुण कमल

बस इसलिए कि तुम्हारे देश में हूँ
और तुम मुझे दो मुट्ठी अन्न देते हो
और रहने को कोठरी
मैं चुप्प रहूँरु
इतना तो मुझे वहाँ भी मिल जाता
या इससे भी ज़्यादा बहुत(कुछ अगर इतना बस
सीख जाता कि कहीं कुछ भी हो, बस, नज़र फेर लो

कैसा समाज है जो
अपनी ही देह की मैल से डारता है
कैसी देह है जो अपने ही नाख़ून से डरती है

लोग तो बोलते ही रहते हैं
इतने अख़बार पत्रिकाएँ फ़िल्म टेलिविजन लगातार
फिर भी ऐसा क्या था जो बोलने में रह गया
ऐसा क्या था जिसका बोलना खतरनाक थारु

मैंने कुछ भी तो नहीं किया
बस, एक निशान छूट रहा था जो लगा दिया।


अरुण कमल