• २०८२ आश्विन २७, सोमबार

गीत

डॉ पीयूष कुमार द्विवेदी पूतूु

डॉ पीयूष कुमार द्विवेदी पूतूु

कंचन कंदुक कर गहे, राघव डगमग चाल ।
क्रीड़ा करते किलकिला, दशरथ अजिर निहाल ।।

धरनी माखन हो गई, चरण कमल नित चूम ।
भाग्योदय निज देखकर, रही हृदय से झूम ।
धन्य स्वयं को मानती, ईश हुए अनकूल ।
नील कंज-घन देह में, लिपट गई जो धूल ।
लुढ़क गए करतल छुए, कौशिल्या के लाल ।
क्रीड़ा करते किलकिला, दशरथ अजिर निहाल ।।

मणिमय आँगन में रहे, अपना रूप निहार ।
आनंदित आनंद है, ब्रह्म हुए साकार ।
हँसते हैं जब खदखदा, दो-दो दिखते दंत ।
इस छवि दर्शन मात्र को, लालायित सुर(संत ।
सभी रानियाँ अंक भर, होतीं मालामाल ।
क्रीड़ा करते किलकिला, दशरथ अजिर निहाल ।।

पैजनियाँ प्रभु पाँव की, करतीं मधुरिम शोर ।
आकर्षित तन-मन करें, सबका अपनी ओर ।
नृप दशरथ की गोद में, जा बैठे प्रभु राम ।
किसे जगत में है मिला, यूँ सुख सिंधु ललाम ।
वचन तोतले रसभरे, देते ताली ताल ।
क्रीड़ा करते किलकिला, दशरथ अजिर निहाल ।।


डॉ पीयूष कुमार द्विवेदी पूतूु
उत्तर प्रदेश, भारत