(लघु–कथा)
“तुम से कहा न यह रूप का सौदा है…“आदमी ने बिगड़ कर कहा,“ इसमें दलाली नहीं चलेगी ।“
“थोड़ा बहुत तो उन्नीस–बीस होगा राजा ?“
“नहीं ,एकदम नहीं ।“ वह आगे बढ़ गया,“ चल भाग नजर से…“
एक इल्तिजा फड़फड़ाती रही,“अरे जरा ठीक से देखो राजा । केवल रूप पर नहीं, कभी गुण पर भी जाओ ।“
सौदागर वाकई बड़ा कठकरेज था । समय बीतता रहा । मगर उसकी चाल नहीं बदली ।
…और एक दिन वह खुद बूढ़ा हो गया ।
उसे उसी बाज़ार में एक कोने में गुमसुम और उदास देखकर एक बूढ़ी औरत ने पूछा,“काहे दुखी हो बाबा ?“
“धंधा नहीं रहा…“
“ बाज़ार तो वही है ।“
“हाँ है तो ।“
“तू नदी किनारे जा ।“
क्यों ?“ बूढ़ा चौंका ।
“थोड़ा सा पानी ला, बस हाथ में “ बुढ़िया ने कुछ सोच कर कहा,“ तेरा धंधा चलेगा ।“
बूढ़ा आदमी गया और भागा –भागा चुल्लू में पानी ले आया ।
पानी कटोरी में लेकर बुढ़िया ने कहा,“ इसे अपनी आँखों में लगा और बोल मैं कौन ?“
“माँ !“ बूढ़ा जोगिन के पैरों पर गिर पड़ा ।
“रूप का नहीं, गुन का धंधा कर बेटा !“
कह कर बुढ़िया बाज़ार से निकल गयी ।
लोग कहते हैं बूढ़ा भी उस बाज़ार में फिर कभी नहीं गया ।
मगर बाजार की अक्ल पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ा ।
वह आज भी पैसे के जोर पर दुनिया को तौल रहा ।
नाम- संजय कुमार सिंह, कटिहार, बिहार