• २०८० असोज ७ आइतबार

हाँ ये मौसम बारिश का है

डा. श्वेता दीप्ति

डा. श्वेता दीप्ति

छावन से टपकती
बारिश की बूँदें
और भीगता मेरा मन
भीगते हैं संग
कई अहसास भी
हाँ ये मौसम बारिश का है
और नहीं होती कभी अकेली मैं
बारिश के मौसम में
पेड़ों की पत्तियों पर
पड़ती और बिखरती
बूँदों से रुबरु होती मैं
जीवन की क्षणिकता को
महसूस करती
पत्तों पर अठखेलियां करती
बारिश की बूँदों से
बतियाती मैं
नहीं होती कभी अकेली
बारिश के मौसम में
इन दिनों उन बूँदों के साथ ही
बरसती हूँ मैं भी
कतरा–कतरा अपने अहसासों के साथ
भीगती हूँ मैं भीतर तक
उन भीगती यादों के साथ
जब गीली हथेली समेटे
तेरे हाथों की गर्मी से
पिघलती थी मैं
सुर्ख गुलाब की तरह
खिलती और खुद में ही
सिमटती सी मैं
भीगती हूँ मैं हर बारिश में
नहीं होती कभी अकेली
बारिश के मौसम में
असंख्य बूँदों के साथ
उलझती, भीगती अल्हड़ सी लटों पर
तुम्हारे संवारते हुए
हाथों को महसूस करती
थरथराते लबों से
आँखों को बंद कर
छावन से गिरती
बूँदों को पीती हुई मैं
नहीं होती हूँ अकेली
बारिश के मौसम में
जब भी बरसता है बादल
बरसते हैं अहसास भी मेरे
उन सिहराती चंचल हवाओं के साथ
जो छूकर तुम्हें दूर कहीं से आती हैं
महसूस करती हूँ
उस सर्द हवा को
वैसे ही जैसे
महसूस करती है धरती
बारिश की बूँदों को
और जज्ब कर लेती है खुद में
इस यकीन के साथ
कि बूँदें बनी ही है उसके लिए
नहीं होती हूँ कभी अकेली
बारिश के मौसम में
क्योंकि असंख्य बूँदों के साथ
ही घुल जाती हूँ मैं
बिखर कर मिट जाने की सीमा तक
नहीं बनना चाहती मैं नदी
नहीं मिलना चाहती किसी सागर में

बनी रहना चाहती हूँ बस एक बूँद
गिरती, टपकती, बिखरती
नहीं होती हूँ कभी अकेली
बारिश के मौसम में ।


डा. श्वेता दीप्ति