• २०८१ श्रावाण ११ शुक्रबार

सुबोध श्रीवास्तवका दुई हिन्दी कविता

सुबोध श्रीवास्तव

सुबोध श्रीवास्तव

उसके बाद

तुम,
चाहे जो कुछ भी
ले लो मुझसे
लेकिन
कविता को
मेरे पास ही रहने दो!
तब, जब
सब छूट जाएगा
और
साथ छोड़ रही होंगी
स्मृतियाँ भी–
कविता रहेगी
और/पहले की तरह
बड़े अपनत्व से
अंगुली थामे
साथ–साथ
बतियाती चलेगी
मेरी आखिरी साँस तक !!

बंदूकें

तुम्हें
भले ही भाती हो
अपने खेतों में खड़ी
बंदूकों की फसल
लेकिन–
मुझे आनन्दित करती है
पीली–पीली सरसों
और/दूर तक लहलहाती
गेहूं की बालियों से उपजता
संगीत।
तुम्हारे बच्चों को
शायद
लोरियों सा सुख भी देती होगी
गोलियों की तड़तड़ाहट
लेकिन/सुनो..
कभी खाली पेट नहीं भरा करतीं
बंदूकें,
सिर्फ कोख उजाड़ती हैं ।


सुबोध श्रीवास्तव