• २०८० असोज १२ शुक्रबार

प्रीत का नाद

बसन्त चौधरी

बसन्त चौधरी

पिघलता हिमखण्ड
सघन से तरल होकर
बहता है अपने पूरे वेग से
पथरीली चट्टानों को काटता हुआ
इक नदी का रूप लेकर ।

और फिर वह परिणत नदी
टेढी–मेढी अनजानी राहों पर
निरन्तर बहती है
नहीं पता उसे
अपने अंजाम और प्रारब्ध का
नहीं जानती वह किसी
मरुथल की तप्त रेत में
बिखर जायेगी या
भाप बना देगा उसे
तपता हुआ सूरज
या किसी दिन बहती हुई
पहुँच जायेगी किसी
सीपी के मुख में

और बदल जायेगा उसका स्वरूप
एक बार फिर तरलता से सघन में
ठोस रूप धारण कर
बन जायेगी चमकता मोती
सज जायेगी किसी के गले में
मोहक हार बनकर

नहीं विचारती वो
आज और कल को
वो बहती है निरन्तर
पेड, पहाडों का असीम प्यार
किनारों से नेह का आलिंगन
नदी के पाटों का अपनत्व
सब भुलाकर, बिसरा कर
बढती ही जाती है,
बिना रुके, बिना थके,
निःस्पृह, निस्संकोच
पगली बनी धार

पठार से गले मिलती कुछ
धीमी पडी थी गति भी
झाडियों में भटकी भी
किन्तु बढती ही रही

अनवरत, अविचलित
उसी ओर जहाँ देव ने
तय कर दिया था उसका गन्तव्य
खडा था जहाँ बाँहे पसारे,
अपने आप में समा लेने के लिए
आत्मसात् कर लेने के लिए
उसके प्रीत के अनहद नाद को
अपना बनाने के लिए प्रिय सागर
सदा–सर्वदा के लिए ।

साभार: अनेक पल और मैं


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(चौधरी विशिष्ट साहित्यकार हैं ।)