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उमड घुमड लहराता जाऊँ
पृथक- पृथक या एक साथ ही
मैं ऊँचे नभ में गहराऊँ
अथक दूर तक मैं लहराऊँ
क्षितिज पार, सागर से ऊपर
थार मरुस्थल या सहरा में
महाद्वीपों की सीमाएँ भी
बाँध न पायें, सब बेबस हों
भू- मण्डल के सकल पटल पर
बेबाकी से मैं मँडराऊँ
उमड- घुमड लहराता जाऊँ
मुझ से ही है यह हरियाली
घिर- घिर आता हूँ धरती पर
बंजरपन का भाव भगाकर
करूँ उर्वरा प्यास बुझा कर
सूक्ष्म तरल पानी कहलाऊँ
उमड- घुमड लहराता जाऊँ
जब चाहूँ सूरज को ढाँपूँ
चाँद, सितारों को छुपा लूँ
दूजे पल आजादी दे दूँ
और अंक में चमक दामिनी
घोर गर्जना नाद भयंकर
सारा जग जगमग कर जाऊँ
उमड- घुमड लहराता जाऊँ
आसमान में विचरण करता
जन जीवन का मैं पोषक हूँ
हाँ ! मैं !
आवारा बादाल हूँ
उमड- घुमड लहराता जाऊँ ।
साभार: अनेक पल और मैं
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(चौधरी विशिष्ट साहित्यकार हैं ।)