• २०८१ माघ २७ आइतबार

मेरा गांव

डॉ पुष्पलता सिंह पुष्प

डॉ पुष्पलता सिंह पुष्प

जाड़ों की गुनगुनी धूप
की सुनहरी चादर ओढ़े
धानी रंग के लहलहाते खेत,
खेतों में झूमती गेहूं की बालियां
रातकी ओस के मोतियों का
हार पहन कर खुद पे इतराती हैं
और मचलकर झूम उठती हैं तब
एक दूसरे की बाहों में,
खेतों के बीच से जाती हुई
वो कदमों से बनी पगडंडियां
मानों खेतों के तन पर
बनकर नस रक्त का संचरण करती हैं,
खेतों में पानी से उठता धुआं
सुनहरी चादर और धानी पहरन
के बीच में घूमता हुआ,
गगन में उड़ा ले जाता है
धरा को अपने साथ
दूधिया उड़न खटोले पर,
वही बहता पानी अपनी खामोशी में
अपने भीतर कितने ही प्रश्न लिए
और उनके जवाब छुपाए,
बहा ले जाता है खेतों के
सहारे लगे ऊंचे ऊंचे वृक्षों से गिरे पत्तों को,
जो एक दूसरे से अठखेलियां करते
अपनी ही मस्ती में बहते हैं,
कभी बहते खामोश पानी पर
कभी बालियों पर पड़ी
ओस की बूंदों पर
प्रतीत होते हैं वो
झिलमिलाते सुनहरे मोती
जिन्हें रवि ने अपनी रश्मियों से
बिखेरकर जड़ दिया है अपने सुनहरे हाथों से !


डॉ पुष्पलता सिंह पुष्प, दिल्ली, भारत