कविता

प्रातःकाल
सूर्य की पहली रश्मि
अपनी कोमलता को त्याग कर
आकर बैठ गयी
कठोर हिमखण्ड के भाल पर
अपनी ऊष्मा के योग से
शनैः- शनैः करने लगी प्रहार
और
चटखने लगी
रजत की ज्यों चमकती
चकाचौंध कर देने वाली
बहने को तत्पर
प्रस्तर से बने जल–कण
अपने प्रेमी के आगोश में
समा जाने के लिए
एक अनजान पथ पर
हाँ ! इसी प्रकार
निश्चित नहीं होता
प्रेम का पथ या गन्तव्य भी
यूँ ही अक्सर मेरा मन भी
चलायमान हो जाता है
और विचरने लगता है
जल कणों के साथ–साथ
खोजने निकल जाता हूँ उन्हें
जो किसी अनजानी राह में खो गये
नहीं ! नहीं !!
शायद मैं निकल पडता हूँ
मेरे अपने दिल में पल रहे
पावन प्रेम को एकाकार
कराने साक्षात्कार
अनोखा है, अद्वितीय है
तेरा–मेरा पहला शाश्वत मिलन
जैसे जलकणों का विलय हो रहा है
सागर की अथाह गहराई में ।
साभार: अनेक पल और मैं
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(चौधरी विशिष्ट साहित्यकार हैं ।)