• २०८२ बैशाख १४ आइतबार

जीवन–चक्र

बसन्त चौधरी

बसन्त चौधरी

पहाडों के आगोश में
खोता वो तपता सूरज
समा जाता है
अपनी तपिश को छोड
उसकी ऊँचाइयों के पीछे
कहीं गहरी निशीथ में
बता जाता है हरशाम
हमें जीवन जीने का सार
कोमल मधुमास का
संचित जीवन रस
गोधूलि के आने तक
खत्म होने लगता है
और फिर रगों में दौडता
तप्त लहू यूँ ही एक दिन
ठण्डा पड जाता है
समय का नया चक्र
एक नये लिबास के साथ
हमें कोई नयी दुनिया बख्श देता है
यही तो है जीवन–चक्र।

साभार: अनेक पल और मैं


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(चौधरी विशिष्ट साहित्यकार हैं ।)