क्या यह सम्भव है ?
मैं स्वयं ही भुला दूँ
अद्वितीय अहसासों के
अमूल्य खजाने को
लुट जाने दूँ ।
प्रथम प्रीत की नाजुक डोर को
टूट जाने दूँ और
भूल जाऊँ ?
असम्भव है भूलना
मिलन की वो भावुक घडियाँ
दिल में उठते प्रेम–ज्वार को
मधुर मिलन के उस पल को
जब तुम सिमट गयी थीं
मेरे हृदय के प्रेमपाश में
उखड पडी थीं हमारी साँसें
बताओ कैसे सम्भव है
भूल जाऊँ ?
निःशब्द होता था संवाद हमारा
निर्निमेष देखना एक दूजे को
सदियाँ सिमट जाती थीं एक पल में
वोपल जो केवल अपना था
तुम ही कहो ना
उन स्वर्णिम पलों को क्या सम्भव है
भूल जाऊँ ?
यही तो अपने जीवन की
अनमोल और संचित निधि है
कैसे बिखर जाने दूँ
और खोल दूँ मन के आँगन को
नहीं! नहीं !!!
यह साझा अतीत हमारा
सिर्फ और सिर्फ हमारा है
असम्भव ही नहीं है,
अस्वीकार्य है मुझे
कि मैं
भूल जाऊँ !!
साभार: अनेक पल और मैं (कवितासङ्ग्रह)
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(चौधरी विशिष्ट साहित्यकार हुन् ।)