• २०८१ फागुन ६ मङ्गलबार

क्या तुम्हें पता है

बसन्त चौधरी

बसन्त चौधरी

तुम्हें पता है ?
जब तुम नहीं होतीं !
तुम्हारे बिना,
मैं
रेगिस्तान- सा हो जाता हूँ !
अन्दर बाहर
सुनसान
वीरान
बियाबान- सा हो जाता हूँ  !!

तुम्हें पता हैँ ?
जब तुम नहीं होतीं
तुम्हारे बिना,
फूल, कलियाँ, नजारे
चाँद, सूरज और सितारे
कितने बेमानी लगते हैं ?
उजाले धुँधला जाते हैँ
अरमान मुरझा जाते हैँ
दिन गुजरता नहीं
शाम ढलती नहीं
लाख काटने पर भी,
रात की स्याह चादर कटती नहीं !

तुम्हें पता है ?
जब तुम नहीं होतीं
तुम्हारे बिना,
सूनेपन से घिरा
वीराने में,
अकेला खडा
धूप में जलते हुए,
दरख्त जैसा हो जाता हूँ !
धुआँ- धुआँ सा,
रास्ता देखते- देखते,
पथराई आँखो से,
तुम्हें ढूँढते- ढूँढते
खुद न जाने कहाँ खो जाता हूँ !

तुम्हें पता है ?
जब तुम नहीं होतीं
और अचानक
भूला- भटका,
हवा का काई खुशगवार झोंका
तुम्हारे होने का,
एहसास दिला देता है
तो मेरा दीवानापन,
अँधेरे दिल के,
गोशे- गोशे में,
चाहतों के चिराग जला देता है !

तुम्हें पता हैं ?
जब तुम नहीं होतीं
तुम्हारे बिना,
तुम्हारे होने का,
यह एहसास
मेरे सारे वजूद में
मोहब्बत के फूल खिला देता है
तुम्हें पाने का शौक बढा देता है
तुम्हारे बिना,
अकेला अधूरा हूँ
फिर भी,
प्रिय !
तुम मेरी हो
इस यकीन की वजह से
जिन्दा हूँ !

साभार: अनेक पल और मैं


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(चौधरी विशिष्ट साहित्यकार हैं ।)