• २०८१ चैत ३ सोमबार

नहीं समझता अब खुद को रब

रुबी प्रसाद

रुबी प्रसाद

अब वो रौब नहीं जमाता
वो दोस्त बन जाता है अब
हमारी खुशी से नहीं होता है उसे अब दुख
हमारी हंसी से खुश होता है अब
उसे नहीं चाहिए अब बस हमारा शरीर
वो रूह में भी उतरता है अब
वो नहीं समझता है अब हमें चरणों की दासी
कंधे से कंधा मिलाकर चलता है अब
बस गुस्सा नहीं करता है वो
गुस्से को सहता भी है अब
थक कर चाहे कितना भी चूर क्यों न हो

रसोई में पसीने से लथ पथ स्त्री की भी पीड़ा
समझता है अब
स्त्री की भी यौन इच्छा का करता है वो सम्मान
पौरुष का दंभ नहीं दिखाता है अब
सिर्फ अपनी सफलता पर नहीं होता है वो गर्वित
स्त्री की भी सफलता पर दंभ भरता है अब
बस कहने के लिए नहीं बोलता
“ लेडिज फस्ट “
खुशी खुशी स्त्री को आगे करता है अब
हाँ बदल गया है इक्कीसवीं सदी का पुरुष
स्त्री को देकर सम्मान
स्त्रीत्व का मान रखता है अब
कठोरता , घमंड को करके त्याग
कभी दोस्त तो कभी-कभी थोड़ा स्त्री बन जाता है अब
पुरुष अब बन गया है पुरुष
नहीं समझता खुद को रब ।


रुबी प्रसाद, सिलीगुड़ी पश्चिम बंगाल