• २०८२ पुष ६, आईतवार

गजल

 डॉ रश्मि दुबे

डॉ रश्मि दुबे

ज़िन्दगी का सलीका निभाना पड़ा
ग़म थे गहरे मगर मुस्कुराना पड़ा

हौसलों को संभाले रहे उम्र भर
वक्त का साथ कुछ यूं निभाना पड़ा

कौन अपना यहां औ पराया यहां
जानने के लिए आजमाना पड़ा

हो गलत फहमियों का न मंजर खड़ा
आईना सच का सबको दिखाना पड़ा

जिंदगी थी किराए का घर दोस्तों
छोड़कर एक दिन हमको जाना पड़ा

आंख खुलजाए सब की सही वक्त पर
खुद को ’रश्मि’ तमाशा बनाना पड़ा


डॉ रश्मि दुबे, गजियाबाद