• २०८१ भाद्र २७ बिहीबार

शहर, प्रेम और एकांत

डा. अजित

डा. अजित

शहर में रहते हुए प्रेम करना आसान नही
ये मत सोचिए कि गाँव में आसान है
वहां तो ये जानलेवा भी है
फिर कहां प्रेम करना आसान है ?
मुझे पूछा किसी ने
मैंने कहा प्रेम करना वहां आसान है
जहां ये करना नही पड़ता
बस हो जाता है
उस शहर से मुझे प्रेम था
इसलिए नही कि तुम वहां रहती थी
बल्कि इसलिए
वो शहर हमेशा तुम्हारे अन्दर रहता था
मैं जब भी भूल जाता था तुम्हारा पता
वो शहर बता देता था मुझे कि
इनदिनों किस शहर में हो तुम
ऐसे प्यारे शहर से भला कोई कैसे प्रेम न करें ?
लखनऊ कानपुर दिल्ली भोपाल
ये कुछ शहर है
जिनका नाम हर कोई जानता है
बता सकता है फलां ट्रेन जाती है वहां
मगर जहां तुम रहती हो
उस शहर का नाम केवल मैं जानता हूँ
इस बात के लिए बड़े शहरों ने
कभी माफ नही किया मुझे
वो सुनना चाहते थे मुझसे
समन्दर की दोस्ती के किस्से
मगर मैं हमेशा सुनाता रहा
पहाड़ के एकांत के सुख–दुःख
शहरों ने मुझे इसलिए कभी नही अपनाया
मैं शहर में रहकर करता था गाँव की बात
और गाँव में तलाशता था शहर की निजता
शहर सलाह देते रहे मुझे
यदि तुमसे मिलना है बेफिक्र
तो पहाड़ और समन्दर के अलावा
आसमान में भी रखूं अपना आरक्षण
तुम्हारे शहर
अब न कोई ट्रेन जाती है न कोई बस
वहां केवल जाता है मेरा अधूरा मन
जिसकी सवारी करने की
इजाजत मुझे भी नही है अब
ऐसे में कोई तुमसे कैसे मिले भला ?
वो शहर
सिविल लाइन्स वाला शहर था
इसलिए उसके चौराहे मुझे अच्छे लगते थे
जब–जब मैं जीवन के दोराहे पर आया
मुझे याद आए उस शहर के चौराहे
और मैं जान पाया तब
जीवन का हर दोराहा
होता है दरअसल एक चौराहा
जिसके
दो रास्ते हम देख पातें है
और दो देख पाता है वो
जो करता है हमसे प्रेम ।


डा. अजित