भीतर कितने छुपे आदमी,
कर दे आज हिसाब आदमी ।
अन्धकार की काट बेडियाँ,
बन बैठा महताब आदमी ।।
गिरते–पड्ते ऊपर चढ्ते,
एवरेस्ट का बना विजेता ।
प्रगति के नव सोपानों में,
देवों की ज्यों बना प्रणेता ।।
लेकिन जितना आगे बढ्ता,
गिरा, उठा नायाब आदमी ।
भीतर कितने छुपे आदमी,
कर दे आज हिसाब आदमी ।।
सब कुछ पाकर विडम्बना है,
मानव कब मानव बन पाया ।
भीडतन्त्र के जग में खोया,
मौन स्वयं खुद में उलझाया ।।
निडर खडा पल प्रलंयकारी,
कोलाहल में ख्वाब आदमी ।
भीतर कितने छुपे आदमी,
कर दे आज हिसाब आदमी ।।
थका नहीं तू, रूका नहीं है,
बढ्ता रहा अनवरत पथ पर ।
साम्राज्य जग में फैला कर,
सदा रहा कब उच्च शिखर पर ।।
कभी रसातल, दलदल डूबा,
इसका कौन जवाब आदमी ।
भीतर कितने छुपे आदमी,
कर दे आज हिसाब आदमी ।।
साभार: अनेक पल और मैं
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(चौधरी विशिष्ट साहित्यकार हैं ।