गजल

…क्यों कि सपना है अभी भी
इसलिए तलवार टूटी,अश्व घायल
कोहरे डूबी दिशाएं
कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धुंध धूमिल
किन्तु कायम युद्धका संकल्प है अपना अभी भी
…क्यों कि सपना है अभी भी !
तोड़कर अपने चतुर्दिकका छलावा
जब कि घर छोड़ा, गली छोड़ी, नगर छोड़ा
कुछ नहीं था पास बस इसके अलावा
विदा बेला, यही सपना भालपर तुमने तिलक की तरह आँका था
(एक युग के बाद अब तुमको कहां याद होगा ?)
किन्तु मुझ को तो इसीके लिए जीना और लड़ना
है धधकती आग में तपना अभी भी
….क्यों कि सपना है अभी भी !
तुम नहीं हो, मैं अकेला हूँ मगर
वह तुम्ही हो जो
टूटती तलवार की झंकार में
या भीड़ की जयकार में
या मौत के सुनसान हाहाकार में
फिर गूंज जाती हो
और मुझको
ढाल छूटे, कवच टूटे हुए मुझको
फिर तड़पकर याद आता है कि
सब कुछ खो गया है- दिशाएं, पहचान, कुंडल, कवच
लेकिन शेष हूँ मैं, युद्धरत्मैं, तुम्हारा मैं
तुम्हारा अपना अभी भी
इसलिए, तलवार टूटी, अश्व घायल
कोहरे डूबी दिशाएं
कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धूंध धुमिल
किन्तु कायम युद्धका संकल्प है अपना अभी भी
… क्यों कि सपना है अभी भी !
धर्मवीर भारती