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उसने चुना लम्बे समय तक
अधूरा श्रृंगार करना
उसने दोनों हाथों में मेहंदी लगाई
मगर लिखा नहीं कभी किसी का नाम उस पर
उसने लगाया महावर
दोनों पैरों की एड़ियों पर
मगर नहीं मिलाई लकीरें
दोनों ओर से कभी भी
उसने बिंदी सजाई प्रतीक्षाकी
अपने मस्तिष्क पर
और उसने बचाऐं रखी हया भी
अपनी आँखों में
उसने सहेज कर रखा सम्मान बरसों से
अपने मन की दहलीज पर ।
हाँ उसने चुना लम्बे वक्त तक
अधूरे श्रृंगार में रहना
क्योंकि ब्याह केवलचुनावमात्र का नहीं
अपितु स्वीकृति का भीविषय है
और स्वीकृतितो आधार है, आस्था है, विश्वास है
उस एक के प्रति जो पूरक हो उसके लिए
फिर स्वीकृतिचाहे पूर्व में दी हो
या पश्चात में
महत्वपूर्ण इसमें श्रृंगार की
सार्थकता और पूर्णता भी है
वरना तो इसे ढोना मात्र है जीवन भर के लिए ।
दिव्या सक्सेना, दिल्ली, भारत