• २०८१ कातिर्क ३० शुक्रबार

कौन खोले द्वार

अज्ञेय

अज्ञेय

सचमुच के आये को
कौन खोले द्वार !
हाथ अवश
नैन मुँदे
हिये दिये
पाँवड़े पसार !
कौन खोले द्वार !

तुम्हीं लो सहास खोल
तुम्हारे दो अनबोल बोल
गूँज उठे थर थर अन्तर में
सहमे साँस
लुटे सब, घाट-बाट,
देह-गेह
चौखटे-किवार !

मीरा सौ बार बिकी है
गिरधर ! बेमोल !
सचमुच के आये को
कौन खोले द्वार !

साभार : कविताकोश