आँगन में खडा वो दरख्त
चुपचाप खामोशी से खडा
न जाने कितने मौसम देखें हैं
बैसाख–जेठ की तपती धूप देखी है,
आषाढ सावन की बारिश भी
फागुन की रूखी हवा के थपेडे और
शाखों से विलग होते पत्तों का दुख भी
पर इन सबके बीच इसे
हमेशा इनतजार रहा है
पतझड के बाद आने वाले बसन्त का
यह अडिग रहा अपनी जमीं को
मजबूती से थामे हुए
इस यकीन के साथ कि
शाखाएँ फिर हरी होंगी
नयी कोपलें टहनियों पर
फिर इठलाएँगी और
एक बार फिर, दरख्त की किस्मत
बदल जायेगी
मुस्कुरा उठेगी उसकी दुनिया ।
साभार: अनेक पल और मैं
[email protected]
(चौधरी विशिष्ट साहित्यकार हैं ।