गोधूलि में अक्सर
जब क्षितिज के छोर पर
जहाँ मिलते हैं धरती–आकाश
उस गोधूलि अनुपम वेला में
लौट रही गायों और
धूलकणों के संग
तुम्हारी याद भी
स्वर्णिम आभा लिए आती है
और मुझे छू जाती है
फिर दिल–दर्पण में एक प्रतिमा
रह–रह कर उभरती है
जैसे कोई स्वर्ग की अप्सरा
जो मेरे सूने मन–मन्दिर में
यादों के संचित निधि–कलशों
के साथ स्थापित होती है
और दीप्त कर जाती है
मन्दिर का हर कोना ।
साभार: अनेक पल और मैं
[email protected]
(चौधरी विशिष्ट साहित्यकार हैं ।)