• २०८१ माघ ५ शनिवार

ख़्वाहिशें

डॉ मुक्ता

डॉ मुक्ता

ख्वाहिशें कब पूरी हुई
किसी की इस जहान में
यह मानव को उलझाती
बीच भंवर छोड़
साहिल से उस पार बुलाती
हर पल सिज़दा करती
परंतु रंगीन तितली की भांति
पल भर में जाने कहां उड़ जाती
मन बावरा इनके पीछे
दौड़ा चला जाता
परंतु उन्हें पूर्ण करने में
स्वयं को असमर्थ पाता
और अपने प्राण लुटाता
अधूरी ख्वाहिशें
अक्सर बदल देती
अंदाज़ ज़िंदगी का
कब पागल मनवा
जहान में उन्हें पूरा कर पाता
ख्वाहिशें जब जीने का
मक़सद बन जातीं
तभी ही वे पूरी हो पाती
सो! ख्वाहिशों को बना लो
ज़िंदगी का मक़सद
यह उलझायेंगी नहीं तुम्हें
उन्हें खाना-पीना
ओढ़ना-बिछौना बना लो
और उनके नाम कर दो ज़िंदगानी
और फ़लसफा समझ उन्हें अपना लो ।

डॉ मुक्ता (गुरुग्राम हरियाणा, भारत)