तुम्हे देखकर उपजती है
मेरे भोले–भाले, निश्छल
या कहूँ चंचल मन के
किसी उद्दण्ड कोने में
कुछ अजीब सी कामना
चाहता हूँ
अन्तस् पिपासा की शान्ति,
अतृप्त अभिलाषा की पूर्ति
क्षणिक आत्म–सुख से
आनन्दित होने की आस में
फिर भटक जाता हूँ
अपने आप से
ओढता हूँ एक आवरण
और ढक लेता हूँ
अपने अनिश्चित लक्ष्य,
और अपनी कामना को ।
साभार: अनेक पल और मैं
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(चौधरी विशिष्ट साहित्यकार हैं ।)