उपन्यास के आरंभिक हिस्से का एक अंश –
“बेटी. बेटियां हवा से बनती हैं. निष्पंद पलों में वे दिखाई नहीं पड़तीं और बेहद बारीक़ एहसास कर पाने वाले ही उनकी भनक पाते हैं. पर थमा समां न हो और वे हिल रही हो…. हाय कैसे तो वे हिलती हैं.. तो आकाश नीचे को झुकने लगता है इतना कि हाथ उठा के छू लो. खखानी धरती फटती है और बुलबुले उठते हैं और फिल कलकलाते हुए झरने निकल आते हैं. पहाड़ियां उझकती हैं. चारों ओर प्रकृति का अनोखा विस्तार खुलता है और अचानक आप समझ लेते हैं कि दूरी और गहराई, दोनों की आपकी समझ गड़बड़ा गई है. जिसकी सांस बालों पर आ गिरी नर्म पंखुड़ी थी, समुंदर में दहाड़ती चट्टान सी मारती है. जिसे आप हिम पर्वत समझ रहे हैं वो तो एकदम पास उसकी उंगली है जो नहीं पिघलेगी. आपकी अक्ल का चिराग गुल हो जाता है और अंधाकुप्प जो छाया है छाता ही रहता है. जैसे रात हो जाए तो रात ही चलती जाए. या दिन है तो दिन ही अविरत. और हवा चलती है जैसे रूह आह भरती, सारे में लहराती, करवट बदलती तो चुड़ैल हो जाती, इस पर, उस पर टूटती गिरती.”
औरत और सरहद का साथ हो तो खुद-ब-खुद कहानी बन जाती है । साधारण औरत में छिपी एक असाधारण स्त्री की महागाथा ‘रेत-समाधि’ पुस्तक की लेखिका गीतांजलि ने अपनी किताब के लिए कहा था । गीतांजलि श्री का उपन्यास `रेत-समाधि’ एक ठेठ उपन्यास है और इसमें एक मुख्य कथा है जिससे जुड़ी कई आनुषंगिक कथाएं भी हैं. पर जिस तरह से ये कथाएं कही (या लिखी गई हैं) उसमें कथालोक के साथ विस्तीर्ण काव्यलोक भी है. इसमें एक नायाब किस्म की किस्सागोई भी है. घुमावदार और कुछ जगहों पर आकस्मिकताओं को समेटे हुए. जब आप इन किस्सों से गुजरते हैं तो आपको इसका भरपूर और सघन आस्वाद मिलेगा । आप हर शब्द पर रुकना चाहेंगे और डूबना चाहेंगे और फिर जो आस्वादन आप लेंगे वो निश्चय ही अलौकिक होगा । उपन्यास का एक उद्धरण लेकर कहें तो `हर कतरा हर तिनका हर रेशा पुर-एहसास है.‘ काव्यात्मकता के अलावा भाषिक प्रयोग की अन्य छटाएं भी यहां हैं ।
`रेत- समाधि’ में एक वाक्य है- `बातों का सच ये है कि सारे पहलू एक संग नहीं खुलते’. ये इस उपन्यास के बारे में भी सही है. इसमें जीवन और जगत के, राष्ट्रीयता और परिवार के, संस्कृति और पंरपरा के, भाषा और कलाओं के कई पहलू हैं औऱ ये एक संग नहीं खुलते हैं. अलग अलग संदर्भों में खुलते हैं. विभिन्न स्थलों पर भिन्न-भिन्न वैचारिक पक्ष सामने आते हैं. जैसे रिवायत या परंपरा कैसे बनती है ?
परंपरा निर्माण एक जटिल प्रक्रिया है इसमें सिर्फ सर्वस्वीकृति ही नहीं दमन भी शामिल है- इसे एक किस्से से समझाया गया है. किस्सा संक्षेप में इस प्रकार है- एक गौरेया थी जो जग भर में निडर घूमती थी. घरों में घरौंदा बनाती थी और कंधों पे और पैरों के पास रस्सी कूदती चली आती थी. सूरज उसपर फिदा था और उसके कारण वन गुलजार था. एक दिन एक घुड़सवार ने, जो शिकारी भी था, नाचते नाचते मस्ती में गौरेया पर गोली चलाई. इसके बाद तो गौरैया डर गई. इतनी डर गई की पक्षीप्रेमी सालिम अली से भी डरने लगी ।
स्पष्ट है कि ये एक रूपक-कथा है जिसका नारीवादी अर्थ भी है और वे ये कि पुरुषसत्ताक समाज ने औरतों को डराकर परंपरा बनाई है. एक मानीखेज वाक्य उपन्यास मे है- ‘मर्दानगी लगभग हर रिवायत की तह में छिपी है.’ और आगे चलकर दूसरा वाक्य आता है- ‘आदत ही रिवायत है’. ये इस तरफ संकेत है कि हम अपनी आदत को परंपरा मान लेते हैं ।
श्री का अपनी रचनाशीलता के विषय में यह कहना है कि मैं जैसे लिख रही हूं, मैं हमेशा नई लगती हूं। प्रेम, वैर और आपसी नोकझोंक के बीच एक परिवार की कहानी को समाज तक लाने की मैंने कोशिश की। पुस्तक के शीर्षक में रेत शब्द के विषय में लेखिका का कहना है कि, जब रचना आगे जाती है तो उसमें कई कड़िया जुड़ती जाती हैं। पुस्तक लिखने के दौरान रेत के कई संदर्भ आए, तभी इसके नाम के साथ रेत जुड़ गया। औसत शख्स नहीं है कमतर शब्द और भाषा अपने आप में शख्सियत हैं। मैंने पुस्तक के माध्यम से मध्यम व्यक्तियों की कहानी को उभारा है। हाँ अगर किसी के मन में ये सवाल है कि ये कहानी समाज के औसत व्यक्ति की नहीं तो ये बताना भी जरूरी है कि औसत शख्स को कमतर नहीं आका जा सकता। अगर ऐसा हो रहा है तो समाज में कुछ गड़बड़ है, जिस पर साहित्यकारों को कलम चलाने की जरूरत है। साहित्य मनोरंजन का साधन नहीं है । इसे समझने के लिए थोड़ा तो डूबना ही होगा। किस्से खत्म नहीं होते हैं। यही तो कहानी को मरने नहीं देते। अगर साहित्य पढ़ने के बाद आपको सोचने पर मजबूर करता है तो समझिए कि लेखक का कलम चलाना सार्थक हुआ। लेखिका का मानना है कि किसी कहानी का सुखद अंत इस बात की गवाही नहीं है कि वो बहुत बेहतर लिखा गया है। अगर पाठक को पुस्तक राह दिखाए तो समझिए शब्दों ने अपना काम कर दिया। मेरी नजर में साहित्य ऐसा हो जो लोगों को चौकन्ना करे। हर व्यक्ति के अंदर बसता है समाज लेखिका ने कहा कि हर व्यक्ति के अंदर समाज है। अगर एक आदमी बोल रहा है तो वो अकेला नहीं है। एक मुंह से निकले शब्द समाज की सोच को चरितार्थ करते हैं ।
रेत समाधि, मध्यम वर्गीय परिवार की दिनचर्या, रिश्तों-नातों, नोंक-झोंक, भाव-विडंबनाओं, लगाव-अलगाव और सपने-उम्मीदों को रेखांकित करता चलता है। ऐसे ही परिवार की दो स्त्रियां, एक बेटी और एक मां, एक बड़ी होती और दूसरी उम्र के साथ छोटी, एक गंभीर और ज़िम्मेदार तो दूसरी उम्र के साथ आज़ाद और आबाद, इस कहानी की धुरी हैं, जिस पर सारा उपन्यास घूमता रहता है। मां और बेटी के बीच के रिश्ते को बड़ी बारीकी से रेत समाधि उकेरता चलता है ।
बेटी को विदा करने के बाद एक मां, बेटी के घर का पानी भी न पीने वाले समाज में बेटी के साथ कम ही रह पाती है। उसकी नियती होती है पूरी उम्र बेटे के घर में बिता देना। इस कहानी में जब मां कुछ समय के लिए बेटी के साथ रहने आती है तो पुड़िया में बंद बुढ़िया से आज़ाद गुड़िया बन जाती है। बेटी मां और मां बेटी के तरीके से जीने लग जाती है। जो लोग संयुक्त परिवार में रहे हैं, वो रेत समाधि के परिवार से खुद को जोड़ पाते हैं ।
एक आम घर से निकली कहानी कैसे बॉर्डर पार कर पाकिस्तान पहुंच जाती है, यह पढ़ना काफी रोमांचक है। गीतांजलि श्री का यह उपन्यास सिर्फ भारत-पाकिस्तान सरहद ही नहीं पार करता बल्कि लेखन की भी हर सरहद को तोड़ता चलता है। बिना वाक्य बनाए भी शब्द इतना कमाल कर सकते हैं, वो आप इस उपन्यास में देखते हैं। यह कब कहानी से कविता में ढलता है और कब कविता से गीत में, आप जान नहीं पाते। हालांकि कहीं-कहीं थोड़ी ऊब भी पैदा करते हैं। लगता है जैसे चीज़ें जबरन खींची जा रही हैं। लेकिन अगले कुछ पन्ने नीरसता से पढ़ने के बाद कहानी नया मोड़ लेती है और पाठक फिर कहानी में रम जाता है ।
रिश्तों के ताने-बाने में उपन्यास कई मुद्दों पर कटाक्ष करता चलता है। समाज की स्त्री से उम्मीदें, उसका तय रास्ते से भटकने पर उपजने वाला टकराव, पितृसत्ता, मस्कुलिनिटी, फेमिनिस्म, राजनीति, पर्यावरण, सांप्रदायिकता, ट्रांस्जेंडर ईशूज़, ब्रेन ड्रेन, पार्टीशन, भारत-पाकिस्तान पॉलिटिक्स, प्रेम भी। पठनीय और संग्रहणीय है – रेत समाधि ।
(डा. श्वेता दीप्ति त्रिभुवन विश्वविद्यालय में हिन्दी साहित्य की उप-प्राध्यापक हैँ)
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