प्रेम नहीं समझौता कोई
ऐसे नहीं जिया जायेगा,
दिल का दर्द घटा बन छाए
अब विष नहीं पिया जायेगा !
स्याही- दावातों में बचपन
लिपट- लिपट कर अपना बीता ।
नीली स्याही सतरंगी थी,
अक्षर- अक्षर बहुरंगी थी,
बचपन का था दौर निराला,
बेमतलब सारी मधुशाला ..!
माथे पर संस्कृतिकी बिंदी ,
संस्कार की कर में चूड़ी,
बचपन से अब यौवन आया,
नया प्रेम का रोग लगाया !
पीड़ा की अगणित पंखों से
उड़ा नहीं अब जा सकता है,
कैद अश्रु विह्वल पलकों पर
खुशी न कोई ला सकता है !
क्रोध, लोभ, ईर्ष्या ने मिलकर
अपना- अपना डेरा डाला,
गोरा, काला, पीत, श्वेत मिल
सब रंगों ने घेरा डाला !
मन अनुगामी बन जाता है
मोह सदा इसको भाता है
प्रेम बैठ खिड़की से झाँके,
मोह प्रेम को कैसे आँके ..?
इतनी खींचा तानी में अब
मौन न कोई रह सकता है,
बिखरे रिस्तों की शय्या पर
दर्द न कोई सह सकता है !
उनीं दीपलकों पर आँखें
मृदु सपनों के बौर लगाये,
नहीं पता कितने ख्वाबों ने
आकर अपना ठौर सजाये !
मेरी धड़कन में तुम आकर
सदियों से डेरा डाले हो !
सुर्खलबों के मोती छूकर
स्वप्न अनेकों तुम पाले हो !
बह जाने दो प्रेम नदी में
सागर भी कब से प्यासा है,
व्यंजनकी इस सार्थकता को
मधुर स्वरों की ही आशा है !
मुक्त करो उन्मुक्त प्रेम को
नहीं बंध में रह पायेगा,
जीवन भर आघातों के संग
अब तो रहा नहीं जायेगा !
प्रेम नहीं समझौता कोई
ऐसे नहीं जिया जायेगा,
दिल का दर्द घटा बन छाए
अब विष नहीं पिया जायेगा !
सरिता सारस, गोरखपुर, उत्तर प्रदेश, भारत