सोचतीहूँ किसी दिन
तुम्हारा दिया सब कुछ
तुम्हें सौंप कर, चुपचाप
तुम्हारी ज़िन्दगी से दूर,
बहुत दूर चली जाउँ ..
जहाँ से मेरे लौटने के
सारे रास्ते ख़तम हों,
जहां से मेरी यादों के
साये भी तुम पे ना पड़े,
ना बाकी रहे कोई उम्मीद, कोई सेतु ।
तुम ख़ुश रहो अपनी ज़िन्दगी में,
सारे सपने पूरे कर पाओ
चूमो सफलता के हर शिखर को
सुकूँ के गीत गुनगुनाओ ।
मेरा क्या है,
मैं भी बढ़ चलूँगी
किसी–न–किसी डगर पर
जो जाती हो निर्जन एकांत में ।
जहाँ तन्हाईयां–ही–तन्हाईयां हों
जहाँ मैं झांक पाऊं अपने अंतस में
सुन सकूँ अपनी हर धड़कन को
और डूब जाऊं दिलकी गहराईयों में ।
सोचती हूँ किसी दिन….
रूपम पाठक, काठमान्डू, नेपाल