गीत

परिंदों को भी आज पर की फिकर है
चिता को भी लाशों के ढेरों का डर है
हाय मानवता का ये कैसा कहर है
मैं घर में ही सिमटी हां अपनों का डर है
जो अब तक थे अपने हुए सब पराये
जो जां से थे बदकर, हुए आज न्यारे
हाय अपनेपन का ये कैसा असर है
लहू एक फिर भी ये लगता जहर है
- जो जिन्दा रहूँ तो हैं जी को चुराते
जो मर जाउँ तो पहले सिर को मुडाते
हाय रिश्तों का ये कैसा भंवर है
मै अपनों से डरती परायों का भर है
यहाँ नाच करती है पैसे की ताकत
है सबको नचाती ये पैसे की ताकत
हाय लोगों का ये कैसा भरम है
है पैसा ही सव कुछ न कोइ धरम है
यहाँ सब बजाते हैं अपनी ही डंका
लगी होड सी है बजाने की डंका डगर
हाय खुद को दिखाने का कैसा डगर है
दिखावा ही बैरी ये फिर भी अमर है ।
(स्वतंत्र लेखन, लेक्चरर, मटिहानी, जनकपुर)
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