• २०८२ बैशाख ७ आइतबार

कशमकश

डॉ नाज़ सिंह

डॉ नाज़ सिंह

नाजानें आज
सूरजके किरणोंको क्या खयाल आया
खिड़कीसे झांकती हूई
मुझे जगाने मेरे बिस्तर तक आ पहुंचीं
और मेरी आंखोंपर जोरकी रौशनी डालदीं
अचानकसे तिलमिलाई और
झटसे मेरी आंखें खुलगईं
बिस्तरके सिलवटोंसे लीपटी हुई नींद
उठकर बिस्तरके किनारे बैठगई
देखा किरणोंके आंखोंमें
नाराज़गी आग-सी तपरही थी
शायद उनकी नाराज़गी जायज भी थी
सुबह ढलकर दोपहरके आगोशमें
बहुत तेजीसे प्रचन्ड होने जा रही थी
पंछियों ने अपने बच्चोंके लिए
आहार चुनना शुरुकर दिया था
दिनचर्यामें लोग अपने-अपने कामों पर निकल चुकेथे
मानो सृष्टिका बनाया हुआ सबकुछ
सृष्टिके मुताबिक ही चल रहा हो
सिर्फ एक मैं थी,
जो सृष्टिके गैर मुताबिक विपरीत दिशामें थी
उनकी नाराज़गी जायज ही थी
जब पृथ्वी पर अवतरण किया
सूरजकी पहली किरणोंने
मैं उनके स्वागतके लिए खड़ी नहीं थी वहां
पर, उनको क्या पता,
कलरात देरतक मैं उलझती रही थी
धुंधलाती हुई कई उम्मीदोंके साथ
कभी जो रौशन हुआ करता था मेरे सपनोंका बाग
उम्मीदोंकी रोशनीसे
वो आज मध्धम हो गया है
लगता है जैसे आते-आते वो कहीं दूर ठहर गया हो
और उसी ठहराव से वो हिम्सा जम गया हो
जाने वो कब पिघ लेगा और
अंधकारमय कोहरेको फाड़कर बाहर निकलेगा
इसी कशमकश में मैंने पूरी रात गुजारी है
अब, जब सुबह होनेको है,
तब जाके आंखों मे नींद आईं हैं…


डॉ नाज़ सिंह
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