• २०८१ माघ ११ शुक्रबार

उलझन सी है

शरद निरोला

शरद निरोला

मुझे कहाँ कहींखुद जाना है !
मैं तो हवाओं के रुख का मोहताज हूँ
जिस तरफ भी हवाका रुख है
उसी तरफ मुड़ जाता हूँ
ठहराव नहीं आया ज़िन्दगी में
मैं तो लड़खड़ाते हुए भी चल देता
जब जब बुलाए कोई पीछे से
मैं चाल और तेज कर देता
दूर कहीं वादियों मेँ
हौले से कोई गुनगुनाता
मेरे दिल को सकूँ
जी कभी न घबराता
बर्फ सी ठंडी आहें भी
कभी न विचलित करता
मैं तो हर पल चल चलाचल
अंजाम से कभी न डरता

अचानक एक दिन ऐसा भी आया
नजाने क्यों हवा खुद रुक गई
चलते चलते मैं भी रुका
मेरी सांसें उखड़ गईं

बीच चौराहे पे खड़ा मैं
भौंचक्का खड़ा देखता रहा
अब चलना किस तरफ है आखिर
बार बार यह सोचता रहा

आगे की ओर कदम बढ़ाऊँ तो
दूर तक फैली खाई
पीछे छोड़ आया माज़ी फिर क्यों
खुशीयां रास न आई

इस तरह तो मेरा वजूद
कतरा कतरा हो जाए
अक्स में लटकी अश्क की धाराएँ
फिर कभीबरस न पाए


(मेरिल्यान्ड, अमेरिका निवासी निरोला चर्चित आख्यानकार एवम् पत्रकार हैं ।)
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