आजभी दर्ज हैं
चिड़ियाँ की आंख में
नजाने कितने
शिलाखंड दर्द के ।
सलाखों के पीछे
बेगुनाही की आंख
आज भी रोती है
अफसोस के आंसू ।
कुछ अदृश्य चाबुक
आज भी करते हैं
पीठ पर वार उसके ।
और
बेकसूर होकर भी
जुर्म कबूल करना
झौंकता है
उसकी अस्मिता को
पापबोध की अग्नि में ।
डॉ वन्दना गुप्ता, कवयित्री एवं शिक्षिका, स्वतंत्र लेखन, सिलीगुडी पश्चिम बंगाल, भारत
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