• २०८२ बैशाख ८ सोमबार

एक कैदी से मुलाकात और जेलर की चाय

संजय कुमार सिंह

संजय कुमार सिंह

वह जून महीने का पहला पखवारा था । काफी गर्मी और उमस थी । मुखिया जी से मेरी मुलाकात जेल में हुई । शांत, सौम्य और सहज । बातचीत में निहायत शालीन । उनका चेहरा काफी सुंदर था । प्रभावशाली ! धीरे- धीरे बातचीत शुरु हुई, तो उन्होंने कहा, “जेल की चार दीवारी से घिरा जीवन बहुत कठिन और दुष्कर है ।  उदासी से जकड़े मन- प्राण बाहर की दुनिया में आने के लिए बेचैन रहते हैं । न शाम का मतलब और न सुबह का खयाल… मैं तो लाइब्रेरी में पढ़- लिख कर समय काटता हूँ । आप लोग आते हैं, तो अच्छा लगता है, थोड़ी देर के लिए भूल जाता हूँ कि कैदी हूँ… कभी कभी सोचता हूँ, वे कैसे लोग रहे होंगे, जिन्होंने देश को आजाद कराने के लिए इन सलाखों में अपना जीवन होम कर दिया… उनकी यादों को अब यहाँ ढूँढ़ना भी मुश्किल है…’’
मुझे मुखिया जी की बात दिल से निकली हुई लगी, इसलिए कहा, “उन महान लोगों को देश भूल गया । उनकी बात छोड़िये आप बताइए, आप किस केस में जेल में हैं ?’’
“मर्डर केस में । हाईकोर्ट से होशदामुल का मुजरिम हूँ ।’’
मेरा चेहरा बुझ गया, लगा जैसे दीवार पर टंगी गाँधी जी की तस्वीर टूट गयी हो और सारे किरचे मुझ पर उछट कर गिर गए हों । मुखिया जी का चेहरा अचानक मेरी निगाह में विकृत हो गया, पर मैंने तुरंत अपने मन में आए भाव पर काबू पाया और बदल कर कहा, “कौन- कौन सी किताब है जेल लाइब्रेरी में… गाँधी जी की आत्मकथा तो होगी ?’’
वे मुस्कूराए, “आप कुछ और पूछना चाहते हैं शायद ? पूछिए, जरूर पूछिए ! दिल की भड़ास निकलती है…’’
“आप बुरा मान जाएँगे ।’’
“जेल के इस बंदी जीवन में बुरा क्या, भला क्या ?’’ उन्होंने विलमते हुए कहा, “यहाँ रोज दिल दरकता है… कोई न कोई कील चुभती है..’’
“मुखिया जी !’’ मैं फट पड़ा, “सत्ता के आरोहण में हत्या को छोड़ और कोई विकल्प क्यों नहीं चुनते हैं आप लोग ? पैसा और पावर के खेल में अपनी दबंगता के दर्प से चूर आप लोगो को अपने भविष्य का अंजाम क्यों नहीं दीखता ?’’ मैं खुद को रोक नहीं सका । अपने आक्रोश के सागर में आए भावनात्मक उफान का सारा पानी उन पर उलीच दिया ।
मुखिया जी पर मेरी तल्खियों का कोई खास प्रभाव नहीं पड़ा । उन्होंने कुछ पल सोचने के बाद कहा, “राकेश जी अपराध की दुनिया बड़ी जटिल है । उसके मनोविज्ञान को समझना कठिन है । हमारी न्याय- व्यवस्था में भी खामियाँ हैं । यहाँ जो दिखता है वही सच है, पर पर्दे के पीछे का सच कुछ और होता है । आप अगर गहरी पड़ताल करेंगे, तो अस्सी फीसदी लोग गलत मुकद्दमे में फँसकर जेल आए हुए होते हैं… निरीह और लाचार !’’
“संभव है ।’’ मैंने खुद को संभालते हुए कहा । मुझे लगा जेल के कैदियों से बतियाने का अंदाज यह नहीं होना चाहिए । एक बार ऐसी ही बातचीत में एक कैदी भड़क गया था, तो मुझे घबरा कर हटना पड़ा था । उसने अपनी पत्नी का कत्ल किया था । मैंने बस इतना कहा था कि आप को पश्चाताप तो हो रहा होगा… बस क्या था, वह पागल की तरह चीखने लगा । बाद में पता चला की उसकी पत्नी का किसी से अवैध प्रेम था । यूँ वह बहुत प्यार करता था पत्नी से, पर उस रोज… गुंडे- मवालियों से भरे जेल की अपनी आंतरिक दुनिया होती है । पुराने कैदी अगर भड़क जाएँ, तो उनसे फिर सवाल पूछना साँढ़ को लाल कपड़ा दिखाने जैसी भूल होती है । अपना जिगरा भी मजबूत होना चाहिए… मुझे लगा मुखिया जी शायद भीतर से ऐसी बातचीत की उम्मीद नहीं कर रहे होंगे !
लेकिन कुछ पल की खामोशी के बाद उन्होंने उसाँस लेकर कहा, “किसी भी चीज को कोई आदमी कैसे देखता है, यह उस पर ही निर्भर है । सुना कर क्या होगा, पर बात चल पड़ी है, और आप सुनना चाहते है, तो सुनिए ? मैं मुखिया था अपनी पंचायत का । चुनाव आया तो तीन लोग मैदान में थे । मैं और काली यादव । एक और दबंग हिटलर कुशवाहा भी मैदान में था । यादव जाति के वोट बँटने से मैं चुनाव हार गया । मेरे समर्थक काली पर आक्रोशित थे, सीधे तौर पर उसी ने वोट काट कर मुझे हरा दिया था । बस उसी रात हिटलर ने एक चाल चली । काली यादव की हत्या करवा दी । हंगामा हो गया । मेरा नाम लगा । उसके घर- परिवार के लोगों ने भी यही माना कि यह मेरा काम है… और देखिए मुझे सजा भी हो गयी । मेरी पत्नी अभी मुखिया है उस पंचायत में, पर मैं पिछले तेरह वर्षों से जेल में हूँ… पिछले साल मैं पेरोल पर घर गया था । मेरे बच्चे इस बीच में जवान हो गए…’’
“वेरी सैड !’’ उनकी कहानी सुन कर मैंने कहा, “न्यायालयका आपके केस में सही फैसला नहीं कहा जाएगा ।’’
“हो सकता है अब छूट जाऊँ ।’’ मुखिया जी ने कहा, “मेरी सजा पूरी हो रही है ।’’
“चलिए मेरी शुभ- कामना है ।’’ मैंने दिलासा दी, “सबसे बड़ी अदालत आत्मा की होती है, वहाँ आप निर्दोष हैं ।’’
“जिसे कानून दागी बना देता है, उसके लिए कोई सफाई किसी काम की नहीं ।’’ मुखियाजी ने क्षोभ से कहा, “मन होता है मैं जेल से निकल कर हिटलर का मर्डर कर दूँ, उसने काली का नहीं मेरा मर्डर किया है । मेरे बच्चों को पिता की छाया से महरूम किया है । उससे मैं पल- पल का हिसाब लेना चाहता हूँ, पर अब मैं इस नरक में फिर नहीं आना चाहता हूँ । मेरी पत्नी की भी यही इच्छा है कि मैं उन बातों को भूल जाऊँ । जेल की किसी किताब में मैंने पढ़ा है, जो मनुष्य अपने को बदल सकता है, यह जीवन उसी को राह देता है… निकल कर शेष जीवन मैं पत्नी और बच्चों को देना चाहता हूँ । आपको आश्चर्य होगा यह जान कर कि मैं खाली समय में कविताएँ लिखता हूँ । मेरी पत्नी भी चित्रकार है ।’’
“लेकिन आपकी पत्नी तो राजनाति में है ?’’ मैंने सीधा सवाल किया ।
“वह मेरी मजबूरी है…’’ वे कुछ भरमते हुए से बोले, “आखिर हिटलर कुशवाहा को सबक तो सिखाना था… हमारे परिवार का अपना स्टेटस है ।’’
मुझे लगा मुखिया जी अच्छे ईंसान होने के साथ अच्छे डिप्लोमेट भी हैं, उन्हें जेल के जीवन की नारकीय स्थिति का अहसास तो है, पर वे एक पैर अब भी उस राजनीति में रखना चाहते हैं, जो उसे यहाँ तक ले आयी । ऐसे लोग अपनी पत्नी को भी अपने प्रतिरूप में ढालते हैं, इसके लिए वे कोई वाजिब तर्क भी गढ़ लेते हैं… मैं घटनाक्रम को अपनी दृष्टि से देख रहा था । ऐसा मेरा स्वभाव रहा है, इसलिए चाह कर भी मैं हमदर्दी के बावजूद उनसे इत्तेफाक नहीं रख पाया । इसका खामियाजा भी कई बार भुगतना पड़ा है जीवन में, पर बातचीत में झूठ कैसा ? दिल की बात जुबां पर आनी चाहिए, सो कहा, “मुखिया जी बात अपराध पर चली थी, जहाँ तक मैं समझता हूँ । हिटलर ने काली का खून नहीं किया होगा । काली के मरने से फायदा आपको हुआ कि हिटलर को ? आपकी पत्नी चुनाव जीत गयी । कोई अपने पैर में कुल्हाड़ी क्यों मारेगा ? इसलिए उसके प्रति गुस्सा निकाल दीजिए ।’’
“यह आप कैसे कह सकते हैं ?’’ मुखिया जी झल्लाए, “वह मुझे हमेशा के लिए फिनिश करना चाहता था, उसकी महत्वाकांक्षा एम. एल. ए. बनने की है । आक्रोश में मेरी पत्नी कहती है कि वह अगर चुनाव लड़ेगा, तो वह भी एम. एल. ए. का चुनाव लड़ेगी । उसे गुस्सा क्यों नहीं होगा ? मैं यक्ष हूँ, तो वह शापित यक्षिणी की तरह पीड़ा भोग रही है ।’’
“नहीं मुखिया जी मुझे माफ कीजिए । यह आपका विचार है, वर्ना राजनीति में कोई मजबूरी से नहीं आता, भले मजबूरी में आदमी किसी की हत्या कर दे यह मुमकिन है… यह आप बाहुबलियों का राजनीतिक ट्रैंड है कि मजबूरी का बहाना कर आप पाक कवर अपने पास रखना चाहते हैं । पाक कवर है तो सब कुछ है । भले ही इसके लिए पत्नी ही मोहरा क्यों न बने ।’’
“यह आप मुझसे कह रहे हैं कि मौजूदा राजनीति पर तंज कस रहे हैं ।’’ वे झन्नाए, “यह बाहुबलियों का ट्रेंड है कि पूरी भारतीय राजनीति की तस्वीर या आपका अपना पूर्वाग्रह ? चीजों को कभी सकरात्मक दृष्टिकोण से भी तो देखा जाना चाहिए… मैं गंदा हो सकता हूँ, पर पूरे परिदृश्य पर आपका यह कमेंट एक तरह के प्रतिक्रियावाद से पैदा हुआ लगता है… मेरी पत्नी एम. ए. पास है । उसके पिता एम. एल. ए. थे । एक राजनीतिक बैकग्राउण्ड पहले से रहा है… राजनीति बुरी नहीं होती । उसमें देश- दुनिया को बदलने की ताकत होती है ।’’
“तो आप कहना चाह रहे हैं वह अपनी इच्छा से राजनीति में आयीं ?’’ मैंने व्यंग से हँस कर कहा । वे भी हँसे, “दाम्पत्य जीवन की मूलभूत भावनाओं के विरुद्ध आपके इस सवाल पर हँसा जा सकता है… कहा जाता है कि देवासुर संग्राम में रथ की कील खुल जाने पर एक राजा की पत्नी ने कील में अपनी उंगली दे दी थी..’’
“यह भी कम विलक्षण उदाहरण नहीं है ।’’ मैंने सहज भाव से कहा, “पर तब राजा को इसकी कीमत चुकानी पड़ी थी…’’
मुखिया जी मेरी लक्षण समझ कर ठिठक से गए । फिर भी कहा “राकेश जी वैसे मैं आपकी बातों से मैं असहमत नहीं हूँ । परिस्थिति पर किसी का कितना अख्तियार होता है । पढ़- लिखे लोगों से संवाद अच्छा लगता है… पर आपको बाबुलदास नाम के कैदी से भी मिलना चाहिए… एक जहीन गायक जेल में है ।’’
“क्यों ?’’
“यह आप उसी से पूछिएगा ।’’
“सुनिए मुखिया जी मुझे भी आप जैसे रैडिकल आदमी से मिल- जुल कर अच्छा लगता है, बशर्ते आपस में कोई व्यक्तिगत तुर्शी पैदा नहीं हो, हर आदमी का संदरभ पर्सनल होने के साथ सामाजिक विषय भी है, इसलिए कि आदमी समाज में रहता है, जेल तो समाज का निषेध करने वालों के लिए एक वैकल्पिक व्यवस्था है कि वह समाज का महत्व समझे ।’’…
“मुझे तो आप जैसे लोगों से रश्क होता है, मगर क्या किया जाए राजनीतिक जीवन एक दलदल की तरह है । कोई निकल पाया एकाध अपवादों को छोड़ कर ?’’ उन्होंने खुद से फिर कहा, “मैं कोशिश करूँगा कि बाहर निकलूँ । मगर क्या यह संभव होगा ? अभी यह वादा कर लेना जल्दबाजी होगी, पर मैं वह नहीं करूँगा, जिससे राजनीति बदनाम होती है । समाज की मर्यादा भंग होगी । मुझे लगता है, पहले भी मैंने समाज की अवमानना नहीं की, पर दंड तो मुझे मिला । अगर मैं गलत नहीं हूँ, तो मेरे तेरह वर्ष क्या लौट सकते है ?’’
“मुखिया जी, आप में एक संजीदा आदमी जिन्दा है । मुझे आपसे उम्मीद है । राजनीति हो, पर लोक- तांत्रिक मूल्यों पर । गाँधी जी भी तो राजनीति करते थे.. सत्य, अहिंसा, आदर्श और उच्चतर नैतिकता के साथ ।’’ मैं भी रौ में बहने लगा था,“ जेल वे भी गए पर मूल्यों के लिए, अंग्रेजी दासता से मुक्ति के लिए, पर सत्य- अहिंसा का दामन उन्होंने कभी नहीं छोड़ा ।’’
“इसलिए उस पथ पर चलने के कारण मार भी दिए गए !’’
“यह आप क्या बोल रहे हैं ? गाँधी एक विचार हैं ।’’ मैंने कहा “गाँधी भले मारे गए, पर किसी विचार की हत्या कब होती है ?’’
“हत्या तो नहीं हो सकती, पर राजनीति में गाँधीगिरी का आज मजाक भी खूब हो रहा । वे भी यूज एण्ड थ्रो का शिकार हैं..’’
“देश चौराहे पर खड़ा है मुखिया जी, उसे फैसला करना है किस मार्ग से जाना है । गाँधी के देश में माकबलीचिंग की घटनाएँ हो रही है…सामाजिक सामरस्य बिखर रहा…राजनीति का रोल अहम हो गया है । हम लोगों को संकीर्णता से ऊपर उठना होगा ।’’ मैंने मन को निचोड़ कर कहा ।
अंदर कांस्टेबुल आया, तो हम चौंके । घंटों हमारी बातचीत हो चुकी थी ।
मेरा वक्त समाप्त हो गया था । जेलर बुला रहा था । मैं काँपी- कलम समेट कर निकला, तो मुखिया जी ने गर्मजोशी के साथ विदाई दी, “आप से मैं फिर मिलना चाहूँगा ।’’
“जरूर !’’ मैंने हाथ हिलाया । मुझे लगा जैसे मेरे हाथ से लग कर आसमान में बादल और हवा लहरा रहे है उन्मुक्ति की किसी भटकी हुई उम्मीद में, पर मैंने देखा, आसमान में बादल का एक टुकड़ा जेल के मध्य भाग में अब भी अटका है…आश्चर्य नहीं कि गाइड को भी पता नहीं होगा कि मेरे इस जुनून के पीछे गहरी पीड़ा और उदासी से उपजी वह स्थिति है, जिसे मैं कैदियों से मिलते हुए अमूर्त्त अवसाद के रूप में महसूस करता हूँ । मेरे पिता के साथ तब एक भयानक त्रासदी हुई थी, जब हम बच्चे थे । मासूम, भावुक और खुश रहने वाले हम बच्चो पर बिजली गिर पड़ी थी । मुझे याद है हमारे पिता का स्टेट था । सब उसे कोठी कहते थे। नौकर- चाकर । लाम- काफ । उनके मित्र आए हुए थे । किसी दूसरे स्टेट के जमींदार । वे लोग शिकार खेल कर आए थे । शाम का समय था । मारे हुए पक्षियों को लोग छील रहे थे । बरामदे में बंदूक रखी थी । मेरा भाई जो मुझसे थोडा बड़ा था, वहीं खेल रहा था, जाने क्या हुआ, कैसे हुआ । उससे स्ट्रीगर दब गया और गोली उनके दोस्त के सीने में जा लगी । धमाका के साथ खून का फव्वारा फूटा । वे लुढ़क गए… हंगामा हो गया… रिश्ते अलग गए, बदनामी अलग हुई । पुलिस आयी, तो पिता जी ने कहा गोली भूल से मुझसे छूट गयी । भाई को उन्हौंने बचा लिया, पर वे लम्बे अरसे तक जेल में रहे । जब सुप्रीम कोट से बरी हुए, तब निकले । वे फिर शिकार खेलने कभी नहीं गए । घंटों हवा, बादल और आकाश को ताकते रहते थे । ऐसा लगता था जैसे जेल से आने के बाद उन कुछ वर्षों में उनके जीवन में कुछ खो सा गया हो, सबसे अधिक इस घटना का प्रभाव हम दोनों भाइयों के बचपन पर पड़ा था । माँ अन्दर से टूट गयी थी । इसलिए जब मुझे अपने रीसर्च पर काम करने का मौका मिला, तो मैंने अपराध के मनोवैज्ञानिक अध्ययन को अपना विषय बनाया । मुझे हमेशा लगता था कि उस मुकद्दमें की जिल्लत झेलते पिता तो निर्दोष थे ही । बड़े भाई ने भी जान–बूझ कर गोली नहीं चलायी थी, मगर दूसरी तरफ उनके दोस्त की दुनिया भी उजड़ गयी थी । उनके परिवार के रुदन ,विलाप गुस्से और क्षोभ ने हमें हिला कर रख दिया था, वहाँ सदाशयता के लिए कोई जगह नहीं थी, इसलिए पिता की स्मृति के साथ मुखिया जी की त्रासदी मेरे जहन से चिपक गयी थी । अहसास में नमक घुल रहा था ।

जेलर के आफिस में चाय पीते हुए मैंने पूछा, “जेल मैनुअल्स के हिसाब से मुखिया जी का आचरण कैसा है ?’’
“अच्छा !’’ जेलर ने सपाट भाव से कहा, “भले आदमी हैं। काफी पढ़े- लिखे भी । जेल लाइब्रेरी की हर किताब को इन तेरह वर्षों में घोंट कर पढ़ा है…कुछ चीजें छपती भी हैं…एक बार मुझे दिखा रहे थे… कोई पत्रिका थी…’’
“तो फिर जेलर होने के नाते तुम्हें सरकार में सिफारिश करनी चाहिए ।’’
“रीपोर्टिंग तो होती है’’ रामशंकर हँसा, “मगर कानून को कटघरे में खड़ा नहीं किया जा सकता । अंग्रेजों के बनाए नियम सख्त हैं । वैसे भी जिसको न्यायालय से सजा हुई, वह मेरी निगाह में अपराधी है ।’’
“मेरी एक शिफारिश नोट कर लो ।’’ मैंने तंज किया, “वे मुझे कहीं से अपराधी नहीं लगते । उनके मामले में कानून से शायद चूक हुई है ।..’’
“इतना इमोशनल नहीं बनो, बी प्रैक्टिकल । कल तुम्हारा एप्वांइटमेण्ट एक बड़े कैदी के साथ है । तुम स्टोरी कवर करो । डाटा का विश्लेषण बाद में में करना ।’’ रामशंकर ने साफ- साफ कहा, “जिससे मिलोगे । कुछ न कुछ लगेगा । किस- किस की सिफारिश करोगे ? यह काम ह्यूमन राइट्स वालों को करने दो, कानून गलत है, तो फिर है कैसे अपनी कील पर दुनिया को टिकाए ? आजकल एक फैशन चला है अपराधियों में भद्रता का स्वांग करने का, करने दो । अपना करियर देखो । जल्दी थीसिस जमा करो । वैसे मेरे हाथ में कुछ नहीं है ।’’ उसने हाथ कुछ इस तरह हिलाया कि मैं उसका मुँह देखता रह गया । लगा कानून की तुला पर न्याय मेरी आँखों में हिल कर रह गया हो !


(प्रिंसिपल,आर.डी.एस.कालेज सालमारी, कटिहार, भारत)