• २०८१ पौष २९ सोमबार

बूंद पसीनो

बसन्त चौधरी

बसन्त चौधरी

समस्यावां की वननासी झाड़्यां मांय
उलझकर भी
साहस कै सागै भटकतां हुयां
चाणचक जद् आंख्या भर भर आवै
तब मनैं बेरो पट्यो
आशिर्वादस्वरुप
आपका वरद हस्त
म्हारै माथै ऊपर है।

बो छिण…
ओहो ! बीं छिणमें
कोई मुकुटधारी कै व्यक्तित्व सूं
मैं कम सुशोभित कोनीं ।
इसी गौरवमय अनुभूति हुवै म्हानैं
म्हारा बापूजी !

मैं साधिकार उद्घोष करूं हूं –
थे ई हो
बा सगरमाथा
जिंकी
पगतलियां पताल टेकेड़ी है ।

आपकै कांधै पर
गांठड़ी को जो दाग पडेÞड़ो है
बो ई है थारो पौरख फलेड़ो
मेणतको नाम !

दुनियां कै सामनै विनम्र पेस करूं हूं
म्हारी पेचाण
बापूजी !
मैं बीं ई विपुल मेणत सूं झरतो
कण मात्र
बूंद पसीनो
एक अभिन्न क्रम हूं ।


(कवि बसन्त चौधरीको ‘वसन्त’ मारवाडी कविता–सङ्ग्रहबाट साभार)