• २०८१ असोज २९ मङ्गलबार

मैं अजान सी

शिप्रा झा

शिप्रा झा

मैं मंदिरों में अजान सी
हूँ गीता में क़ुरान सी
मंजिलों का सफ़र हूँ मैं
हर सफ़र की मैं तलाश भी

मुझे बंदिशों की फ़िकर कहाँ
ना काफ़िले का मुरीद हूँ
ये जहां मेरा बसेरा है
हर शाख़ का परवाज़ हूँ

न हो सफ़ा अफ़सोस का
इक, क़िताबे हयात में मेरी
चराग़े-अमन मैं बन जाऊँ
यही इक इल्तिजा मेरी

ख़्वाहिशें मेरे अहबाब की
मुकम्मल हुईं जो न अब तलक
उन ख़्वाबों के खंडहर को
फिर तामीर मैं बना सकूँ

जज़्बे का दीया जला सकूँ
जहां के हर ज़ेहन में मैं
ज़मी पे भी फ़लक सी
सितारों की बुलन्दी हो


(स्वतंत्र लेखन, नई दिल्ली)
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