कविता

अगर आज ही
शाम तक
जाना पड़े जीन्दगी से वापिस
तो होगा कितना मलाल ।
कितने प्रियजनों से
न मिल सका ।
न माँग सका माफ़ी
उन कामों के लिए
जो मैंने निज- स्वार्थ
के लिए किए ।
कितना रह गया
अनकहा,
जो न कह पाया
संकोच वंश ।
नबना पाया अपना उनको
जो शायद
चाहते थे बनना मेरा ।
जाना पड़ेगा जीन्दगी से वापिस
शाम तक
तो उठेगी टीस कहीं
अंतर- मन में
कितना रह गया बाकि
इस धरा पे देखना ।
कितना कुछ रह गया
अन्जाना ।
जीन्दगीकी कैनवस पर
भर न पाया
कितने अनछुए रंग
छूट गए कहीं पीछे ।
अगर आज ही शाम तक
जाना पड़े
जीन्दगी से वापिस
तो होगा कितना अफ़सोच
कि
न कर पाया पूरी
मन में दबी अधूरी इच्छाएँ
रह गई भीतर ही कहीं ।
जाना पड़े आज शाम ही
तो उठेगी एक हूक
दिल के हर कोने से
चुभेंगे नशतर
कि
रह जाएँगी कितनी मेरी
कविताएँ अधूरी
जिन्हें मेरी कलम से
गुजर कर आना था
इस जहाँ में ।
(जालन्धर, पञ्जाव, भारत निवासी डा. बिशन सागर चर्चित कवि है ।)
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