जद में छोटी ही, भोली ही पर बंदूका री गोली ही ।
सगला टाबर रल मील खेलता हा, आंख मिचोली ही ।
घर में सगला सु छोटी ही, दादीमां, मां-पापा, वीरा
सगलारी “लाडो बेटा” म्हारा वास्ते,
आ ही एक बोली ही ।
घनी बार माथा म टिकी, आख्यां म काजल,
होटा म लाली लगार,
सीसा र आगा मां री साड़ी ओढ़ खड़ी हो जावती ही ।
कितनों चोखो हो बालपन रो रंग, सब रंग में रंग
जाऊंवती ही ।
कोई दो चार दिना री प्रीत नहीं,
हेत री फसला उगी जन्मता ही ।
बाबुल रो आंगन के हुव,
समझा एक लाडो ही ।
काश कि फेरू सू म छोटी हो जाऊं
और बालपनों दोहराऊं ।
काश कि फेरू सू म छोटी हो जाऊं
और बालपनों दोहराऊं ।
(स्वतंत्र लेखन बिराटनगर)
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