• २०८१ असोज २९ मङ्गलबार

मां, महिला दिवस और यथार्थ

मुकेश भटनागर

मुकेश भटनागर

१.
आज मां
अंतिम बार सो गई
पर जगा गई मुझे
समझाती रहीं
अब करना वहीं
जो लगे ठीक तुम्हें
रहे जिससे
आत्मा मेरी प्रसन्न

होगा कैसे यह सम्भव
अपने से होगा छलावा
जो स्वयं से
नहीं बोल पाते सच
वो कैसे कर पाएंगे
उस मां को प्रसन्न

हम ही से हम है
तो क्या हम है
तुम ही से तुम हो
तो क्या तुम हो
हम ही से हम सब है
रह लो मिल जुल के
समझाती रही
किस किस तरह
हम ही न समझे
अपने दम में

पहले तो थे
तुम उसके भीतर
बस जाती वह फिर
तुम्हारे अंदर
उसके कष्ट तुम्हारा दर्द
हो जाते हैं सब एक
तुम्हारे हर भूल की
सह लेती है सब सजा !
नहीं करती
जरा सी भी आह !

जिसने रखा न
मां का मान
वो कैसे जी पायेगा
जीते जी
वो किसी का
नहीं हो पायेगा ।


(दिल्ली निवासी भटनागर मश्हुर साहित्यकार हैं ।)
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